छत्रपति शाहू महाराज की पहल
छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा स्थापित करने का विचार सबसे पहले शाहू महाराज ने प्रस्तावित किया था.
एक बेहतरीन सार्वजनिक स्मारक बनाने के लिए उन्होंने पहले प्रायोगिक तौर पर छोटे-छोटे स्मारक तैयार करवाए.
इतिहासकार इंद्रजीत सावंत ने बीबीसी मराठी से इस प्रतिमा की कहानी साझा की.
काफ़ी विचार विमर्श के बाद शाहूजी महाराज ने पुणे को चुना.
सावंत का कहना है कि पुणे में शिवाजी के इतिहास की पृष्ठभूमि थी और लाल महल जैसी महत्वपूर्ण संरचनाएं भी पुणे में थीं.
इसके लिए पुणे के भांबुर्डे गांव में 1 लाख रुपये से साढ़े सात एकड़ ज़मीन खरीदी गई.
इस स्मारक के लिए सभी मराठा संस्थाओं ने शाहू महाराज का समर्थन किया.
इसके अलावा केशवराव जेधे, बाबूराव जेधे, राज्य कार्यकारी अभियंता वी. पी. जगताप के साथ-साथ सत्यशोधक समाज के सभी कार्यकर्ताओं ने पहल की.
लेकिन उस दौरान महाराष्ट्र में सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन की पृष्ठभूमि अलग थी.
वेदोक्त प्रकरण के बाद गैर-ब्राह्मण आंदोलन के कार्यकर्ता शाहूजी महाराज के समर्थन में आ गए जबकि पुणे लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का गढ़ था.
शाहूजी महाराज ने स्मारक का भूमि पूजन इंग्लैंड के युवराज प्रिंस ऑफ़ वेल्स के हाथों कराने का निर्णय लिया था.
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प्रिंस ऑफ वेल्स का विरोध
उस समय देश में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ आंदोलन तेज़ था.
गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा का विरोध किया और असहयोग आंदोलन के साथ काले झंडे दिखाने का कार्यक्रम बनाया.
लेकिन उस समय कांग्रेस में कोई गैर-ब्राह्मण मण्डली नहीं थी, इसलिए वो प्रिंस ऑफ वेल्स के हाथों उद्घाटन कराने के निर्णय पर अड़े रहे.
शिवाजी महाराज की प्रतिमा का सबसे पहले पुणे में सनातनी मण्डली ने विरोध किया था.
शुरुआत में इस विरोध को देखते हुए प्रिंस ऑफ वेल्स की ओर से भूमि पूजन से इनकार कर दिया गया.
लेकिन, शाहूजी महाराज शिमला पहुंचे, अपने राजनीतिक वज़न का इस्तेमाल करते हुए उन्हें भूमि पूजन के लिए तैयार किया और सुरक्षा प्रदान करने का वादा किया.
योजना के अनुसार यह भूमि पूजन समारोह 19 नवंबर 1921 को आयोजित किया गया. कुछ लोगों ने प्रिंस ऑफ़ वेल्स को काले झंडे भी दिखाए.
1922 में छत्रपति शाहूजी महाराज की मृत्यु के बाद यह कार्य उनके बेटे छत्रपति राजाराम महाराज ने संभाला.
इस प्रतिमा का काम उस समय के प्रसिद्ध प्रतिमाकार विनायक उर्फ नानासाहेब करमरकर को दिया गया था.
राजाराम महाराज ने उन्हें अपने बंगले के परिसर में ही काम करने की जगह उपलब्ध कराई.
करमरकर ने घोड़े पर बैठे शिवाजी महाराज की एक प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया. इसके लिए छत्रपति राजाराम महाराज के घोड़े को मॉडल के तौर पर इस्तेमाल किया गया.
प्रतिमा की प्रतिकृति तैयार हो गई थी जो कि कांसे की बननी थी लेकिन उनके पास इतनी भव्य प्रतिमा बनाने का साधन नहीं था.
एक यहूदी व्यक्ति के पास मझगांव गोदी में ऐसी व्यवस्था थी, इसलिए प्रतिमा ढालने का यह काम उसे सौंपा गया था. 150 मजदूर इसमें लगे थे.
अंततः कास्टिंग सफल रही और प्रतिमा बन गई.
मुंबई से पुणे तक लाने की चुनौती
17 टन वज़नी इस प्रतिमा को मुंबई से पुणे लाने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ी.
इस प्रतिमा को ट्रेन से ले जाना संभव नहीं था, क्योंकि प्रतिमा की ऊंचाई अधिक होने के कारण यह सुरंगों से नहीं गुज़र सकती थी.
जहाज़ से रत्नागिरी और वहां से सड़क मार्ग से पुणे ले जाने पर भी विचार किया गया. लेकिन इसे लागू करना संभव नहीं था.
अंत में, कम ऊंचाई वाला एक विशेष वैगन बनाकर और प्रतिमा को रेल द्वारा लाने का निर्णय लिया गया. सुरंग आने पर कुछ मज़दूरों को प्रतिमा को झुकाने का काम सौंपा गया.
तमाम मुश्किलों के बावजूद इसे पुणे पहुंचाया गया, एक बड़ी शोभा यात्रा निकाली गई.
प्रतिमा का अनावरण
16 जून 1928 को छत्रपति राजाराम महाराज ने इस प्रतिमा के अनावरण के लिए एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया, जिसमें बम्बई प्रांत के तत्कालीन गवर्नर विल्सन मौजूद थे.
इतिहासकार सावंत के अनुसार, इस प्रतिमा ने महाराष्ट्र को एक नई चेतना दी और छत्रपति शिवाजी महाराज महाराष्ट्र की अस्मिता के प्रतीक बन गए.
पुणे में इस प्रतिमा को स्थापित किए जाने के बाद, इस क्षेत्र को शिवाजी नगर के नाम से जाना जाने लगा.
यह प्रतिमा एक हाथ में तलवार लिए घोड़े पर बैठे महाराज की लक्ष्य प्राप्ति की संतुष्टि को प्रतिबिंबित करती है.
यह प्रतिमा अभी भी अच्छी स्थिति में है और धूप बारिश में भी खड़ी है.