नई दिल्ली. अमेरिका में संभावित आर्थिक मंदी की आशंकाएं प्रबल हो रही हैं. इसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं. विभिन्न आर्थिक संकेतों और बाजार कारकों को घटा-बढ़ाकर देखने से पता चलता है कि अमेरिका मंदी की कगार पर हो सकता है. इस लेख में हम अमेरिका में संभावित मंदी की पड़ताल कर रहे हैं और यह भी बता रहे हैं कि यह भारतीय अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित कर सकती है.
अमेरिका में कई प्रमुख इकोनॉमिक इंडिकेटर कमजोरी के संकेत दिखाने लगे हैं. बेरोजगारी के दावे जनवरी के निचले स्तर से काफी बढ़ गए हैं, और बेरोजगारी दर जुलाई में बढ़कर 3 साल में सबसे अधिक 4.3% हो गई. इसके अलावा, आईएसएम मैन्युफैक्चरिंग PMI नौ महीने के निचले स्तर तक गिर गया है, जो मैन्युफैक्चरिंग गतिविधिओं के सिकुड़ने का संकेत देता है.
हालांकि, इन चिंताजनक संकेतों के बावजूद, कुछ संकेत एक मिश्रित तस्वीर भी पेश करते हैं चालू तिमाही के लिए जीडीपी ग्रोथ के अनुमानों को पहले के 2.6% से बढ़ाकर 2.9% कर दिया गया है. वेतन वृद्धि वर्तमान में मुद्रास्फीति से आगे है, और घर की कीमतें बढ़ रही हैं. ये सभी कुछ ऐसे संकेत हैं जो इकोनॉमी की मजबूती की तरफ इशारा करते हैं.
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Sahm Rule ने भी दिए मंदी के संकेत
अमेरिका में संभावित मंदी के डर से शेयर बाजार में काफी उतार-चढ़ाव आया है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दर में कटौती की बाजार की उम्मीदें बढ़ गई हैं. यह दर्शाता है कि अर्थव्यवस्था धीमी पड़ सकती है. जुलाई के श्रम डेटा द्वारा ट्रिगर किया गया सहम नियम (Sahm Rule) मूल रूप से बेरोजगारी दर में बदलाव पर आधारित एक मंदी की शुरुआत का संकेत है.
इतिहास पर नजर डालें तो यह नियम आर्थिक मंदी का एक विश्वसनीय भविष्यवक्ता रहा है. इसके अलावा, पिछले दो वर्षों में ग्रोथ का सपोर्ट करने वाले संघीय राजकोषीय घाटे का विस्तार अब उल्टा हो रहा है और ग्रोथ को प्रभावित कर रहा है. पिछले कुछ समय से अमेरिकी मंदी के बारे में गूगल ट्रेंड में भी ग्राफ काफी उठा हुआ नजर आ रहा है.
इन कारकों के बावजूद कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मंदी अभी आसन्न नहीं है. ग्रोथ में मंदी की उम्मीद तो है, लेकिन संभावित मंदी का समय का पता नहीं है और न ही यह पता है कि यह कितनी अधिक गंभीर होगी.
भारत को कैसे प्रभावित करेगी अमेरिकी मंदी?
यदि अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी में प्रवेश करती है तो इसका प्रभाव दुनियाभर के तमाम देशों पर पड़ेगा. भारत इससे बिलकुल भी अछूता नहीं रहने वाला. शेयर बाजार में अमेरिका को भारत की मदर मार्केट कहा जाता है. वहां अगर सबकुछ हरा दिखता है तो भारत में भी वैसा ही दिखता है. वहां गिरावट का दौर शुरू होने पर यहां भी गिरावट नजर आती है. दोनों देशों के बीच बड़ा ट्रेड होता है एक दूसरे पर परस्पर निर्भरता है ही.
मंदी जब भी आती है तो आमतौर पर उपभोक्ता द्वारा किए जाने वाला खर्च कम हो जाता है. इससे भारतीय निर्यात की मांग कम हो सकती है. आईटी, फार्मास्यूटिकल्स और कपड़ा जैसे क्षेत्र, जो अमेरिकी बाजार पर बहुत अधिक निर्भर हैं, एक ऑर्डर में गिरावट देखते हैं. इसके अलावा, ग्लोबल सप्लाई चेन में रुकावट आती है. आर्थिक मंदी में इस चेन का टूटना तो तय ही होता है. ऐसे में अमेरिकी बाजारों पर निर्भर भारतीय निर्यातकों के लिए चुनौतीपूर्ण स्थिति हो सकती है.
भारतीय आईटी क्षेत्र पर प्रभाव
भारतीय आईटी क्षेत्र अमेरिकी मंदी के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है. आर्थिक दबावों का सामना करते हुए अमेरिकी कंपनियां आईटी खर्च में कटौती कर सकती हैं, जिससे भारतीय आईटी फर्मों के रेवेन्यू में गिरावट आने के आसार हैं. इससे नौकरी की कमी और परियोजनाओं में कटौती हो सकती है, जिससे इस क्षेत्र की वृद्धि पर काफी प्रभाव पड़ सकता है.
विदेशी निवेश पर प्रभाव
अमेरिका में मंदी से वैश्विक स्तर पर निवेशकों का विश्वास कम हो सकता है, जिससे भारत में विदेशी निवेश का इनफ्लो कम हो सकता है. इससे पूंजी प्रवाह में कमी आ सकती है, जिसका प्रभाव उन क्षेत्रों पर पड़ सकता है जो विकास के लिए विदेशी निवेश पर निर्भर हैं. इसके अलावा, करेंसी में उतार-चढ़ाव, विशेष रूप से अमेरिकी डॉलर के संभावित मूल्य में गिरावट, भारतीय करेंसी को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है. यदि ऐसा हुआ तो आयात महंगा हो सकता है और बाहर से आने वाले सामानों पर निर्भर काम-धंधे भी प्रभावित होंगे.
तेल की कीमतों पर प्रभाव
भारत के लिए एक संभावित सकारात्मक परिणाम तेल की कीमतों में गिरावट हो सकती है. अमेरिकी मंदी से अक्सर वैश्विक तेल की मांग में कमी आती है, जिससे भारत को नेट ऑयल इम्पोर्टर के रूप में लाभ हो सकता है. हालांकि, अर्थव्यवस्था पर कुल प्रभाव कीमत में गिरावट की मात्रा और अन्य क्षेत्रों पर इसके प्रभाव पर निर्भर करेगा.
फ्लैक्सिबिलिटी भारत की ताकत
हालांकि अमेरिकी मंदी के संभावित प्रभाव हो सकते हैं, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था काफी लचीची अथवा फ्लैक्सिबल है. भारत की अर्थव्यवस्था ने पहले भी वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में लचीलापन दिखाया है. कई कारक हैं, जो रिस्क को कम करने में मददगार हो सकते हैं-
– घरेलू मांग: भारत की बढ़ती घरेलू खपत अमेरिका से कम मांग के कुछ नकारात्मक प्रभावों को ऑफसेट करने में मदद कर सकती है.
– बड़ी निर्यात बास्केट: भारत द्वारा अपने निर्यात बाजारों में विविधता लाने पर ध्यान केंद्रित करने से अमेरिका पर निर्भरता कम हो सकती है और संभावित मंदी के प्रभाव को कम किया जा सकता है.
– मजबूत वित्तीय स्थिति: भारत की मजबूत मैक्रोइकोनॉमिक फंडामेंटल बाहरी झटकों को झेलने की ताकत देते हैं.