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December 12, 2024 8:10 pm

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राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद में क्यों……..’क्या है प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट, क्यों हो रही इसे रद्द करने की मांग…..

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सुप्रीम कोर्ट में प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट को रद्द करने की मांग की गई है। अलग-अलग याचिकाओं में कहा गया है कि यह एक्ट किसी व्यक्ति या धार्मिक समूह के पूजा स्थल पर पुन: दावा करने के न्यायिक समाधान के अधिकार को छीन लेता है। इस वजह से इस एक्ट को रद्द कर दिया जाना चाहिए। वहीं, कुछ याचिकाओं में कहा गया है कि यह एक्ट धार्मिक स्थानों की सुरक्षा करता है और पूजा स्थल से जुड़े विवादों को  रोकता है। ऐसे में इस एक्ट को रद्द करने के लिए लगाई गई सभी याचिकाएं रद्द कर दी जानी चाहिए।

प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 में बनाया गया था। इसका उद्देश्य देश में पूजा स्थल से जुड़े विवादों को रोकना था। हालांकि, अब यह एक्ट ही विवादों में आ चुका है। आइए जानते हैं कि प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट क्या है। इसे रद्द करने की मांग क्यों हो रही है और जब राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद की सुनवाई में यह एक्ट बाधा नहीं बना था तो फिर अन्य मंदिर-मस्जिद विवाद में यह एक्ट क्यों लागू हो रहा है।

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क्या है प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट?

उपासना स्थल अधिनियम 1991 (प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट) साल 1991 में कांग्रेस सरकार के समय लाया गया था। इस समय पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे और राम-मंदिर बाबरी मस्जिद का मुद्दा काफी गरम था। राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद के जोर पकड़ने के बाद देश के अन्य हिस्सों में भी मंदिर-मस्जिद विवाद सामने आने लगे थे। इससे देश में तनावपूर्ण माहौल बन गया था। इसी से निपटने के लिए यह कानून बनाया गया था। इस कानून में साफ लिखा है कि 1947 के समय देश में जिस धार्मिक स्थल की संरचना जैसी थी, उसे वैसा ही रखा जाएगा। धार्मिक स्थल की मूल संरचना के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। उस धार्मिक स्थल पर दावा करने वाली या धार्मिक स्थल को हटाने की मांग करने वाली हर याचिका को खारिज कर दिया जाएगा। यदि कोई आदमी इस नियम का उल्लंघन करता है तो उसे जुर्माना देना पड़ेगा और तीन साल तक की जेस भी हो सकती है।

क्यों हो रही प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट को रद्द करने की मांग?

प्लेसिस ऑफ वर्शिप एक्ट कहता है कि 1947 के समय देश में जो धार्मिक स्थल जैसा था। उसे वैसा ही रखा जाएगा। इसके खिलाफ किसी भी याचिका पर सुनवाई नहीं होगी। ज्ञानवापी मस्जिद, संभल मस्जिद और अन्य कई जगहों पर मंदिर-मस्जिद विवाद चल रहा है। हिंदू पक्ष का दावा है कि मंदिर तोड़कर उस जगह पर मस्जिद बनाया गया। उस जगह पर पूजा करने का अधिकार हिंदुओं को मिलना चाहिए। बाबरी मस्जिद की तरह अन्य विवादित मस्जिदों की भी जांच की जानी चाहिए और मंदिर होने की पुष्टि होने पर वहां मंदिर बनाया जाना चाहिए। हालांकि, प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट के तहत किसी भी धार्मिक स्थल के मूल रूप से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है। इस वजह से कई जगहों पर चल रहे विवाद की सुनवाई नहीं हो रही है। इसी वजह से इस एक्ट को रद्द करने की मांग की जा रही है। ताकि मंदिर-मस्जिद से जुड़े अन्य विवादों पर याचिका लगाई जा सके।

राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद में क्यों नहीं लागू हुआ?

जब यह कानून बनाया गया था, तब राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद चरम पर था। ऐसे में संसद ने तय किया था कि अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद के मामले में यह कानून लागू नहीं होगा। इसी वजह से इस विवाद पर लंबे समय तक सुनवाई चली। इसके बाद मंदिर के हित में फैसला आया और अब राम मंदिर बनकर तैयार हो चुका है। हालांकि, अब अगर किसी भी धार्मिक स्थल के मूल स्वरूप में बदलाव की बात होती है तो यह कानून लागू होगा और उस धार्मिक स्थल की रक्षा करेगा। इसी वजह से कानून को रद्द करने की मांग की जा रही है, ताकि सभी पक्ष उन जगहों पर दावा कर सकें, जहां से उनकी धार्मिक भावनाएं जुड़ी हैं, लेकिन वहां धार्मिक स्थल किसी दूसरे समुदाय के लोगों का है.

 

क्या हैं दोनों पक्षों की दलीलें?

इस कानून को रद्द करने की याचिका अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है। उपाध्याय ने उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की धाराओं दो, तीन और चार को रद्द किए जाने का अनुरोध किया है। याचिका में दिए गए तर्कों में से एक तर्क यह है कि ये प्रावधान किसी व्यक्ति या धार्मिक समूह के पूजा स्थल पर पुन: दावा करने के न्यायिक समाधान के अधिकार को छीन लेते हैं। उपाध्याय ने दावा किया कि पूरा कानून असंवैधानिक है और इस पर फिर से व्याख्या करने का कोई सवाल ही नहीं उठता। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और महाराष्ट्र के विधायक जितेंद्र सतीश अव्हाड ने भी उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कई लंबित याचिकाओं के खिलाफ याचिका दायर करके कहा है कि यह कानून देश की सार्वजनिक व्यवस्था, बंधुत्व, एकता और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करता है। अधिकतर मामलों में मुस्लिम पक्ष ने 1991 के कानून का हवाला देते हुए तर्क दिया है कि ऐसे मुकदमे स्वीकार्य नहीं हैं। इस कानून के प्रावधानों के खिलाफ पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर याचिका सहित छह याचिकाएं दायर की गई हैं।

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