प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा संघ लोक सेवा आयोग से लेटरल एंट्री के विज्ञापन को रद्द करने का आदेश देना बतलाता है कि उन्हें मजबूत विपक्ष का कसैला स्वाद चखने को मिल रहा है। इस निर्णय का अर्थ है कि मोदी पर कई तरफ से लगाम लगने लगी है। एक ओर तो विरोधी दल और दूसरी ओर स्वयं सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दलों ने इस फैसले का विरोध किया है जिससे साफ है कि मोदी अब वैसी मनमानी नहीं कर सकेंगे जिस प्रकार से वे 2014 से लेकर 2024 तक के अपने दो कार्यकालों में करते आए हैं। यह लोकतंत्र के लिये एक अच्छा संकेत है। सरकार को विरोधी दलों के साथ सहयोगी घटकों से राय-मशविरा करने की आदत डालनी होगी। वैसे लोकतांत्रिक सरकारें चलाने का यही तरीका है जिसे दो ताकतवर सरकारों के रूप में मोदी भूल गये थे।
पिछली दो लोकसभा के लिये हुए चुनावों में भाजपा को जिस प्रकार से जनसमर्थन मिला था, उसने मोदी एवं उनके सिपहसालार अमित शाह को इतना निरकुंश बना दिया था कि ज्यादातर फैसले वे बगैर किसी की राय लिये करने लगे थे। नोटबन्दी हो या जीएसटी, तीन तलाक की समाप्ति हो या जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 का विलोपन, काले कृषि कानून हों या हिट एंड रन कानून- मोदी सरकार ने इन सभी कानूनों को बनाने या लागू करने में न तो अपने साथियों की राय ली और न ही विशेषज्ञों के विचार जाने; और न ही जनता की पसंद समझनी चाही। ये सभी कानून अचानक और बिना पूर्व जानकारी के लाये और लागू किये जाते रहे। अलबत्ता कृषि और हिट एंड रन सम्बन्धी कानूनों को सरकार को जनविरोध के चलते वापस लेना पड़ा। इसके बावजूद सच्चाई यह है कि पिछली दो मोदी सरकारों को जो मन में आता गया वह सब कुछ वह करती गई। कभी सीधा-सादा शासकीय आदेश जारी कर या कभी अध्यादेश निकालकर अथवा कानून बनाकर। यदि संसद में कानून बनाने में दिक्कत हो तो किसी न किसी बहाने से लोकसभा में हंगामा करवा दिया जाता था और कठपुतली बने लोकसभा व राज्यसभा के क्रमश: अध्यक्ष व सभापति कुछ या थोक में विरोधी नेताओं को निलम्बित कर कानून पास कराते रहे। नयी न्याय संहिता इसी तरह से पारित कराई गई थी।
370 और 400 पार के नारे लगाती आई भाजपा को उम्मीद थी कि बड़ा बहुमत मिल गया तो उसे तथा एनडीए को मनमाने कानून बनाने की छूट मिल जायेगी। प्रमुख लक्ष्य था संविधान को बदलना। उसके कई नेता और कई प्रत्याशी बाकायदे कहते रहे कि मोदी को 400 सीटें इसलिये चाहिये क्योंकि संविधान को बदलना है। इनमें अनंत हेगड़े, मेरठ से सांसद बने अरूण गोविल, अयोध्या से लड़े लल्लू सिंह, राजस्थान की ज्योति मिर्धा आदि शामिल थे। हालांकि चुनाव का अंतिम दौर आते-आते सर्वेक्षणों में सामने आने लगा था कि ऐसा नहीं होने जा रहा है, तो मोदी-शाह समेत सारे भाजपायी नेता और प्रचारक कहने लगे कि ऐसा नहीं है और यह विपक्ष का भाजपा को बदनाम करने का तरीका है। वैसे जनता इस बात को जानती है कि भाजपा एवं उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण के खिलाफ हैं और संविधान बदलने का पहला कदम इसकी समाप्ति से ही होता।
चूंकि भाजपा को 240 ही सीटें मिलीं और वह तेलुगु देसम पार्टी तथा जनता दल यूनाइटेड के बल पर खड़ी है, तो वह ऊंची आवाज़ में संविधान के पक्ष में नारे लगा रही है और मोदी यह कहकर खुद को आरक्षण का बड़ा संरक्षक साबित करने की कोशिश करते रहते हैं कि ‘जब तक वे जीवित हैं, दलितों, ओबीसी एवं आदिवासियों का आरक्षण कोई नहीं छीन सकता।’ आरक्षण की हिफाज़त और लोकतंत्र की दुहाई देने के साथ अब मोदी जी धर्मनिरपेक्षता पर काफी ज़ोर देने लगे हैं। स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से उन्होंने जो भाषण दिया उसमें उन्होंने साफ किया कि ‘देश का सिविल कोड कम्यूनल यानी साम्प्रदायिक है और वे ऐसा सिविल कोड लाएंगे जो सेक्यूलर होगा।’ अब देखना होगा कि वे किस प्रकार का बदलाव नागरिक संहिता में लाएंगे, पर यह साफ है कि जिस सेक्यूलर शब्द से भाजपा-संघ के साथ-साथ उनके असंख्य समर्थकों को इतनी चिढ़ थी, अब उसी के प्रति उन्हें अपना अनुराग एवं आस्था दिखलानी पड़ रही है। सरकार के इस तरह से बदले-बदले से नज़र आने का राज़ भी उसकी कमजोरी और विपक्ष की मजबूती का प्रतिबिम्ब है। हाल में सरकार को अपने कई कदम पीछे लेने पड़े हैं।
जिस प्रसारण बिल के जरिये सरकार स्वतंत्र पत्रकारों, यूट्ययूबरों, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर कड़े नियंत्रण रखने वाला कानून लाने की तैयारी में थी, वह उसे वापस लेना पड़ा। दरअसल, यह मीडिया का वह फॉर्मेट है जिससे सरकार घबराई हुई है क्योंकि इसका असर बढ़ता जा रहा है। सरकार को यह लगा कि यदि इसे नाराज़ किया तो उसे दिक्कतें हो सकती हैं। वैसे भी सरकार समर्थक मीडिया का प्रभाव लगातार घट रहा है। वैसे तो सरकार ने इस पर पिछले साल लोगों से सुझाव मांगे थे पर इसके पहले कि इस पर कानून का प्रारूप लाये, उसे कुछ चुनिंदा लोगों को लीक कर दिया गया। इसमें अनेक ऐसे प्रावधान हैं जिनके जरिये सरकार डिजिटल प्लेटफार्मों पर दिखाये जाने वाले या प्रसारित होने वाले कंटेंट को पब्लिक डोमेन में रखने के पहले पब्लिशिंग कम्प्लायंस सर्टिफिकेट देगी। यह सेंसरशिप ही है। 90 से ज्यादा डिजिटल न्यूज़ पब्लिशर्स ने इस पर आपत्ति जताई जिसके चलते सरकार ने चुनिंदा प्रतिनिधियों के साथ बैठक तो की, लेकिन उनकी नाराज़गी को भांप लिया था। विपक्षी नेताओं ने भी इसकी आलोचना की थी। उनका भी मानना है कि बिल में कंटेंट को रेगुलेट, कंट्रोल, मॉनिटरिंग और सेंसर करने के प्रावधान है जिससे अभिव्यक्ति की आज़ादी को खतरा है। हालांकि सरकार का कहना था कि इससे हेट स्पीच, फेक न्यूज़ और अफवाहें फैलनी रूकेंगी। बहरहाल जनदबाव में यह बिल वापस लेना पड़ा। सरकार इसे सुधारकर पेश करने की बात कहती है, पर अब यह इतना आसान नहीं होगा।
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वक्फ़ बोर्ड संशोधन अधिनियम को वापस लेना भी एक तरह से सरकार की हार माना जा रहा है। संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिनों में सरकार इसे ले तो आई लेकिन संसद को दोनों सदनों में उसका तीव्र विरोध हुआ। विपक्ष ने आरोप लगाया कि भाजपा इसके जरिये अपने साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का एजेंडा ही बढ़ा रही है। दोनों सदनों में हुए प्रखर विरोध के चलते सरकार को इसे संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को सौंपना पड़ा। पिछली लोकसभा को याद करें तो इलेक्टोरल बॉंड्स पर विपक्ष ने जेपीसी की मांग की थी परन्तु बहुमत के बल पर उस मांग को दबा दिया गया था। तीसरी बार सरकार को ऐसे मुंह की खानी पड़ी है कि संघ लोक सेवा आयोग से लेटरल एंट्री के विज्ञापन को रद्द करने का आदेश खुद मोदी को देना पड़ा है। सरकार केन्द्रीय सचिवालय में कुछ पदों पर सीधी भर्ती करने जा रही थी जिसके लिये विज्ञापन जारी किया गया था। इसमें आरक्षण नहीं था। राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि यह संघ के लोगों को सीधे ऊंचे पदों पर भरने की चाल है। अखिलेश यादव के साथ भाजपा की छिपी हुई मित्र कहलाने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी इसका विरोध किया। केन्द्रीय मंत्री चिराग पासवान ने तक इसे गलत बताया। यानी मोदी को चुनौती अब बाहरी ही नहीं, भीतर से भी मिलने लगी है।