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August 8, 2025 10:05 am

अब सुप्रीम कोर्ट ने सुधारी अपनी गलती, 25 साल बाद हुई रिहाई…….’पहले नाबालिग को सुनाई फांसी की सजा…..

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एक ही परिवार के तीन सदस्यों की निर्मम हत्या करने की सजा फांसी तो बनती है। निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनाई, जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक ने मुहर लगाई। राष्ट्रपति के पास दया याचिका पहुंची और उन्होंने फांसी की सजा आजीवन कारावास में बदल दी, लेकिन 25 साल जेल की सजा काटने के बाद अब पता चला है कि अपराध के समय हत्यारा नाबालिग था, उसकी उम्र सिर्फ 14 साल थी। जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के मुताबिक, उसे अधिकतम तीन साल की सजा ही हो सकती थी।

करीब 30 साल पहले 1994 में नौकर ओमप्रकाश ने उत्तराखंड के देहरादून में रिटायर्ड कर्नल, उसके बेटे और बहन का बेरहमी से कत्ल कर दिया था। ओमप्रकाश कर्नल साहब के घर पर नौकर का काम करता था। वह घरवालों से बदतमीजी करता था और पैसे भी चोरी करता था। उसकी इन बुरी आदतों से परेशान होकर कर्नल साहब के परिवार ने उसे नौकरी से निकालने का फैसला लिया। जैसे ही ये बात ओमप्रकाश को पता चली, वो हिंसक हो गया। उसने मौका पाकर कर्नल, उसके बेटे, उनकी बहन की धारदार हथियार से हत्या कर दी। ओमप्रकाश ने रिटायर्ड कर्नल की पत्नी पर भी जानलेवा हमला करने की कोशिश की, लेकिन किसी तरह वो जान बचाने में कामयाब रहीं। घटना के बाद वह फरार हो गया। पांच साल बाद 1999 में ओमप्रकाश को पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी से गिरफ्तार किया गया।

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2001 में मिली थी फांसी की सजा

2001 में निचली अदालत ने ओमप्रकाश को फांसी की सजा सुनाई। हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने भी अपराध की जघन्यता को देखते उसकी फांसी की सजा को बरकरार रखा। दोषी ने निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में अपने नाबालिग होने की दलील दी थी, लेकिन घटना के समय उसका बैंक अकाउंट उसके खिलाफ पुख्ता सबूत माना गया। इसके मद्देनजर हर अदालत ने माना कि वो घटना के वक्त बालिग था। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में उसकी रिव्यू और क्यूरेटिव पिटीशन खारिज हो गई।

राष्ट्रपति ने फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला था

ओमप्रकाश ने राष्ट्रपति के सामने अपनी दया अर्जी दाखिल की। राष्ट्रपति ने 2012 में उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला। साथ ही यह शर्त रखा कि जब तक वह 60 साल की उम्र नहीं पूरी कर लेता, तब तक उसकी रिहाई नहीं होगी। ओमप्रकाश ने सुप्रीम कोर्ट से पहले हाई कोर्ट में फिर याचिका दायर की और उसने हड्डी की जांच रिपोर्ट और स्कूली रिकॉर्ड से जुड़े सबूत कोर्ट के सामने रखे, जिसमें घटना के वक्त उसके नाबालिग होने की पुष्टि होती थी। हालांकि, हाई कोर्ट ने यह कहते हुए इस अर्जी पर कोई राहत देने से इनकार कर दिया कि एक बार राष्ट्रपति की ओर से मामले का निपटारा हो जाने पर केस को दोबारा नहीं खोला जा सकता। ऐसे में कोर्ट इस मामले में राष्ट्रपति के आदेश की न्यायिक समीक्षा नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की इस राय को नहीं माना। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अगर मुकदमे में किसी भी स्तर पर आरोपी के नाबालिग होने के सबूत मिलते हैं तो अदालत को उसके मुताबिक कानूनी प्रक्रिया अपनानी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने सुधारी गलती

जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस अरविंद कुमार की बेंच ने कहा कि इस मामले में दोषी ने कम शिक्षित होने के बावजूद निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हर जगह अपने नाबालिग होने की दलील को रखा था, लेकिन हर स्टेज पर उसके सबूत को नजरअंदाज कर दिया गया। उसे अदालतों की इस गलतियों का खामियाजा भुगतना पड़ा। वह जुवेनाइल होने के नाते अधिकतम तीन साल की सजा काटने के बाद समाज में सामान्य जीवन बिता सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। उसका जो वक्त बर्बाद हुआ, उसकी भरपाई नहीं की जा सकती है।

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