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December 4, 2024 1:56 pm

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Kumar Gandharva: कुमार गंधर्व की 100वीं जयंती.. भारतीय संगीत को ‘निर्भय-निर्गुण’ बनाने वाले गायक

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‘मुझे नहीं पता कि तानसेन कैसा गाते थे. उनके बारे में जो कुछ भी कहा जाता हो लेकिन अगर मैं कहूं कि कुमार गंधर्व आधुनिक समय के सर्वश्रेष्ठ गायक हैं, तो यह अतिशयोक्ति नहीं है.”

मशहूर लेखक एवं संगीतकार पीएल देशपांडे अपने एक संबोधन में कुमार गंधर्व का ज़िक्र करते हुए ऐसा ही कहते हैं.पीएल देशपांडे आरती प्रभु के उस बयान का ज़िक्र भी करते हैं जिसमें उन्होंने कुमार गंधर्व के बारे में कहा था, ”वे केवल गाते नहीं थे, बल्कि सुरों को सुनते भी थे.’दरअसल कुमार गंधर्व जब गाना शुरू करते थे तो लगता है कि ये गीत उनके अंतर्मन की आवाज़ है.भारतीय संगीत, विशेषकर शास्त्रीय संगीत को पसंद करने वाला लगभग हर शख़्स कुमार गंधर्व के गायन से मंत्रमुग्ध हो जाता है.

कुमार गंधर्व की जन्मशती

आठ अप्रैल, 2024 को उनकी जन्म शताब्दी मनाई जा रही है. इसको लेकर संगीत प्रेमियों में काफ़ी उत्साह दिख रहा है.कुमार गंधर्व को गुज़रे तीन दशक से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन उनके गीतों का जादू कायम है.कुमार गंधर्व के गाए कबीर और सूरदास के भजनों और सृजित नए रागों के बारे में आज भी बात होती है. उनके गाए गीतों को सुनना हर बार नएपन का एहसास कराता है. कुमार गंधर्व का गाना सुनकर वे लोग भी मंत्रमुग्ध हो जाते हैं, जिन्हें शास्त्रीय संगीत की समझ नहीं है.

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कुमार गंधर्व’ शिव के पुत्र

पंडित कुमार गंधर्व का जन्म 8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक के बेलगाम के पास सुलेभावी गांव में हुआ था. उनका मूल नाम शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकली था. वे चार भाई-बहनों में तीसरे नंबर की संतान थे. घर में थोड़ा बहुत संगीत का माहौल था क्योंकि पिता सिद्धारमैया की दिलचस्पी गाने में थी. लेकिन एक दिन अचानक सात साल की उम्र में नन्हें शिवपुत्र ने गाना शुरू कर दिया और उन्होंने ऐसा गाना शुरू किया कि हर कोई हैरान रह गया. बच्चे की प्रतिभा को भांपते हुए पिता उन्हें अपने गुरु के पास ले गए. उनके स्वामीजी ने कहा, ‘ओह, यह तो सचमुच गंधर्व है.’ तभी से उन्हें कुमार गंधर्व की उपाधि मिल गई और वे इसी नाम से जाने जाने लगे. इसके बाद ही कुमार गंधर्व ने अपने पिता के साथ जलसों में गाना शुरू कर दिया. महज़ सात-आठ साल की उम्र से. उनके गाने के शो जल्दी ही लोकप्रिय होने लगे. हर किसी को अचरज होता था कि यह लड़का बिना कुछ सीखे इतना मधुर कैसे गा रहा है. उस समय कुमार गंधर्व कन्नड़ के अलावा कोई अन्य भाषा नहीं जानते थे. लेकिन गानों को हमेशा भाषा की ज़रूरत नहीं होती. यही वजह है कि कुमार गंधर्व के शो पूरे भारत में आयोजित किए जाते थे, आज़ादी से पहले उनका शो कराची तक में होने लगा था.

कुमार गंधर्व ने कहां से ली संगीत की शिक्षा

ऐसे ही एक संगीत कार्यक्रम के दौरान, सिद्धारमैया को सलाह दी गई कि वे कुमार को प्रोफेसर बीआर देवधर के पास संगीत सीखने के लिए बंबई भेजें. उसके बाद उनके पिता, कुमार गंधर्व को बंबई में देवधर के संगीत विद्यालय में लेकर गए और खुद सुलेभावी लौट आए. यहीं से वास्तव में कुमार गंधर्व की संगीत यात्रा शुरू हुई. प्रोफेसर बीआर देवधर स्कूल ऑफ इंडियन म्यूज़िक’ मुंबई के गिरगांव में ओपेरा हाउस के सामने एक इमारत के बेसमेंट में स्थित है. संगीत शिक्षा और प्रचार-प्रसार के लिए काम करने वाले बीआर देवधर ने करीब सौ साल पहले इस स्कूल की स्थापना की थी. कुमार गंधर्व 1936 में यहां संगीत सीखने आए और 1947 तक देवधर जी के साथ रहकर संगीत सीखते रहे. उस समय देवधर स्कूल मुंबई में संगीत का एक प्रमुख केंद्र माना जाता था. बीआर देवधर मास्टर के वंशज संगीता और गिरीश गोगटे आज भी संगीत की परंपरा को कायम रखे हुए हैं. गिरीश गोगटे बताते हैं, ”देवधर जी के सभी परिवारों के गायकों के साथ अच्छे संबंध थे. देवधर जी अपने गुरु विष्णु दिगंबर पलुस्कर की पुण्यतिथि का कार्यक्रम हर साल स्कूल में करते थे और उसमें देशभर के प्रसिद्ध गायकों को स्कूल बुलाते थे.” इस प्रकार कुमार गंधर्व को ऐसे विभिन्न घरानों की विशेषताएं सीखने को मिलीं और उनकी गायकी और विकसित हुई.

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संगीता कहती हैं, ”हमारे दादाजी संगीतज्ञ होने के साथ साथ विचारक भी थे. दादाजी ने कभी यह नहीं सोचा कि यह परिवार हमारा नहीं है या हम उनके गीत नहीं गाना चाहते और हम उन्हें अपना ज्ञान नहीं देना चाहते. उन्होंने कुमारजी को हर जगह के संगीत से परिचित कराया और कहा कि वे इसमें से जो भी ले सकते हैं, वे ले लें.” बाद में कुमारजी ने इसी स्कूल में पढ़ाना भी शुरू कर दिया और 1947 में उन्होंने अपनी छात्रा भानुमती कंस से शादी कर ली. कुमारजी के संगीत कार्यक्रम चल रहे थे, लेकिन उसी समय वे तपेदिक यानी टीबी से पीड़ित हो गए.

लाइलाज बीमारी और देवास में रहना

टीबी की बीमारी उस समय लाइलाज थी. इसके चलते डॉक्टरों ने कुमार गंधर्व को ऐसी जगह जाकर रहने की सलाह दी जहां वातावरण शुष्क हो. इसलिए उन्होंने देवास को चुना. भानुमति की बहन त्रिवेणी कंस देवास में रहती थीं. कुमारजी को पुत्र के समान प्रेम करने वाला रामुभैया दाते का परिवार भी देवास में रहता था. इसलिए कुमार गंधर्व ने रहने के लिए देवास को चुना. कुमार गंधर्व पर लिखी किताब ‘कालजयी’ की लेखिका और सह-संपादक रेखा इनामदार साने कहती हैं, ”कुमारजी की पहली पत्नी भानुमति भी एक गायिका थीं. लेकिन जब कुमारजी तपेदिक से पीड़ित हुए तो भानुमती ने कुमारजी की देखभाल की. कहा जा सकता है कि उनकी वजह से कुमार जी बच गए. इस दौरान भानुमती ने स्वयं काम करके परिवार को आर्थिक सहायता भी प्रदान की.”

”भानुमती से कुमारजी को दो पुत्र हुए, मुकुल शिवपुत्र और यशोवर्धन. यशोवर्धन के जन्म के बाद 1961 में भानुमति का निधन हो गया. फिर कुमारजी ने 1962 में वसुन्धरा ताई से शादी कर ली. वसुन्धरा से उनकी एक बेटी कलापिनि थी. 1962 से 1992 तक यानि कुमारजी के जाने तक उन्हें वसुन्धरा ताई का साथ मिला. वे कुमार जी के साथ स्टेज पर भी दिखाई देती थीं.”

कुमार गंधर्व के पोते और मुकुल शिवपुत्र के बेटे भुवनेश कोमकली कहते हैं, “वसुंधरा ताई ने न केवल कुमारजी के जीवन और परिवार की देखभाल की, बल्कि उनकी संगीत परंपरा को मुझे, कलापिनि ताई और अन्य छात्रों तक पहुंचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.” जब कुमार गंधर्व देवास आए, तो उन्हें लगभग पांच साल तक बीमारी के चलते गाने की इजाज़त नहीं दी गई. वह समय कितना कठिन रहा होगा?

इसका वर्णन भुवनेश ने सटीक शब्दों में किया है. वह कहते हैं, ”हाल ही में हमें कोविड महामारी का सामना करना पड़ा. इस बीमारी के कारण कई लोगों की ज़िंदगी में 15-15 दिन का आइसोलेशन, कुछ महीनों का लॉकडाउन जैसी नौबत आई. यह कितना कठिन था?” ”फिर मेरे मन में सवाल आता है कि कुमार जी पांच साल तक एकांतवास में थे. उस दौरान उन्होंने वो पांच साल कैसे बिताए होंगे? तब संचार के माध्यम बहुत उन्नत नहीं थे. इस माहौल में भी, मुझे लगता है कि संगीत के बारे में, अपने जीवन के बारे में सकारात्मक सोचना बहुत महत्वपूर्ण है.” उनका गाना बंद हो गया, लेकिन सुनना बंद नहीं हुआ था.

लोक परंपरा एवं नये रागों का निर्माण

उन पांच सालों में कुमारजी के कानों में संगीत पड़ा. चाहे वह बगीचे में पक्षियों की आवाज़ हो या देवास की आसपास की प्रकृति और लोककथाओं का संगीत. वे सुन रहे थे. देवास मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में इंदौर के पास स्थित है. आज शहर बड़ा हो गया है, लेकिन सत्तर साल पहले यह एक छोटा सा गांव था. इस क्षेत्र की एक समृद्ध लोक परंपरा है. उस मालवी परंपरा में न केवल बड़े मौकों का जश्न मनाने के लिए बल्कि दैनिक जीवन के हर विषय के लिए एक गीत है.

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जब वे लोकगीत कुमारजी के कानों में पड़ रहे थे तो उन्होंने देखा कि इन गीतों का स्वर अलग है. फिर उन्होंने गाने रिकॉर्ड करना शुरू किया. ऐसी लोक परंपराओं की धुनों और गीतों का अध्ययन करते समय उन्होंने जो खोजा, उसकी वजह से कुमार गंधर्व ने भारतीय संगीत में 11 नए धुनुगम रागों का योगदान दिया. उन्होंने पहली बार यह सिद्ध किया कि रागों का निर्माण लोक परंपराओं से होता है. कुमार गंधर्व के शिष्य और प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक सत्यशील देशपांडे कहते हैं, ”राग केवल स्वरों का समूह नहीं है, बल्कि उसकी एक गति होती है. लोग कहते हैं कि सुर पलट कर कुछ नया लेकर आए हैं. लेकिन कुमार गंधर्व ने ऐसा नहीं किया.” ”कुमारजी का मानना ​​था कि हर सुर का एक राग होता है. उन्होंने ऐसी लोक धुनों का अध्ययन किया. जिन सुरों से राग नहीं बना, उनसे राग को रूप दिया गया. उन्होंने ऐसे रागों की भी खोज की जो लोक धुनों में उपलब्ध नहीं थे और राग संगीत को और समृद्ध किया.”

सत्यशील बताते हैं कि यह योगदान कितना बड़ा और महत्वपूर्ण था. ”पंजाबी होटल में आप करी या भिंडी मांगते हैं. सब कुछ एक ही ग्रेवी में तैयार हो जाता है. उस वक्त अपने-अपने घराने में इन सभी रागों को एक ग्रेवी में डालकर गाने की पद्धति थी. कुमार गंधर्व ने वह बंधन तोड़ दिया.”

सत्यशील यह भी बताते हैं, ”उन्होंने सटीकता जयपुर संगीत घराने से ली, वाकपटुता आगरा संगीत घराने से ली. ग्वालियर पर अधिकार कर लिया. एक साथ विभिन्न चीज़ों का एक समूह बनाया. लेकिन आमतौर पर अपना कोई फॉर्मूला तय नहीं करते थे. यह वह क्रांति है जो उन्होंने संगीत में की है. चाहे वह ऋतुसंगीत कार्यक्रम हो या बालगंधर्व जैसे कार्यक्रम जो मुझे याद हैं. इसमें कुमार गंधर्व की गायकी के अलग-अलग पहलुओं को दिखाया गया है.”

कबीर की वाणी

निर्गुण संतों की परंपरा मालवा की लोक परंपरा जितनी ही बड़ी है. शीलनाथ बाबा नामक नाथपंथी संत कुछ समय तक देवास में रहे. उनके द्वारा जो काम शुरू हुआ, वो आज भी चल रहा है. भुवनेश कहते हैं, ”इस नदी के पास निर्गुण संतों का जमावड़ा होता था. उनका भजन करने का तरीक़ा अलग था. वे केवल अपने लिए गाते थे. उनका प्रभाव कुमार गंधर्व पर भी पड़ा. इसके माध्यम से उन्होंने कबीर, सूरदास और अन्य नाथपंथी लोगों के भजनों को लोगों के सामने लाया.”

हालांकि ये भजन थे, लेकिन ये सिर्फ भक्तिपूर्ण नहीं थे. इन संतों की परंपरा में गुरु और गुरु-शिष्य के रिश्ते का महत्वपूर्ण स्थान था. उसमें से एक विचार उभर रहा था जो आध्यात्मिकता के साथ-साथ संगीत को भी छू रहा था. कुमार गंधर्व एक तरह से उस विचार को शास्त्रीय संगीत की मुख्यधारा में भी ले आए. कुमार जी की गाई हुई रचनाओं जैसे सुनता है ‘गुरु ज्ञानी…’, ‘उड़ जाएगा हंस अकेला…’ और ‘निर्भय निर्गुण…’ को सुनते हुए भी यही बात महसूस होती है.

संत कबीर की रचना ‘निर्भय निर्गुण’ के बारे में रेखा इनामदार साने कहती हैं, ”यह निर्भय निर्गुण है. किसी भी तरह से आपको कोई डर नहीं है. यानी विचार यह है कि पूरी तरह से निडर हो जाएं. और निर्गुण इसलिए कि कबीर ने कभी सगुण भक्ति नहीं की. उन्होंने मूर्ति पूजा और सगुण भक्ति को खारिज़ कर दिया.” ‘कुमारजी की भाषा में कहें तो उन्होंने विरानियत और फक्कड़पन पर प्रकाश डाला है. विरानियत का अर्थ है एकांत. एकांत में खोज करते हैं. फक्कड़पन से एक तरह की निर्भीकता का बोध होता है, जिसमें जो आप महसूस करते हैं और विश्वास करते हैं उसे कहने का साहस होता है. कबीर के दोहों में कुमारजी को ये बातें महसूस हुईं.”

कुमार गंधर्व की विरासत

देवास शहर के लगभग मध्य में ‘माता जी की टेकड़ी’ नामक एक छोटी सी पहाड़ी है, जिस पर देवी का मंदिर है. अब इस मंदिर तक पहुंचने के लिए रोपवे है. लेकिन पहले हमें एक सड़क पर चढ़ना था. उसी सड़क पर पहाड़ी की तलहटी में ‘भानुकुल’, यानी कुमार गंधर्व का घर. जैसे ही आप भानुकुल के परिसर में प्रवेश करते हैं, बाईं ओर एक छोटा सा मंच है, जहां बैठकर कोई भी गा सकता है. फिर पीले रंग से रंगी एक इमारत, जिसके अगले हिस्से में एक बरामदा, बरामदे में एक शयनगृह और चारों ओर एक खिलता हुआ बगीचा है. गुलाब से लेकर बैंगनी बेलों तक आपको प्रकृति का नज़ारा दिखता है. दोपहर का सूरज खिड़की से छनकर सामने दिख रहा है. कुमार गंधर्व ने टीबी से उबरने के बाद का सारा जीवन इसी घर में बिताया. लिविंग रूम और वह कमरा जहां कुमारजी रहा करते थे, आज भी वैसे ही संरक्षित हैं. यहां आकर लगता है कि संगीत आज भी यहां मौजूद है. भुवनेश कहते हैं, ”बचपन में हमारे घर का माहौल संगीतमय था. सुबह से लेकर रात तक हमारी दिनचर्या में संगीत के अलावा कुछ नहीं था. यानी अगर कोई नहीं गा रहा होता तो गाने पर चर्चा में शामिल होता. इसलिए यह कहना मुश्किल है कि संगीत में मेरी यात्रा कहां से शुरू हुई.” ”मैं कुमारजी को न केवल दादा के रूप में, बल्कि एक पिता के रूप में भी देखता रहा हूं. जितना उन्होंने मुझे दुलार किया है, उतना ही मैंने उनका गुस्सा भी झेला है.”

बाद में भुवनेश ने पहले वसुंधरा ताई और फिर पंडित मधुप मुद्गल से संगीत की शिक्षा ली. उनका कहना है कि वसुंधरा ताई ने सीधे तौर पर उन्हें कुमारजी की रचनाएँ सिखाने से शुरुआत नहीं की. सबसे पहले, उन्होंने पारंपरिक संगीत सिखाया. ‘अब, मेर पास जो लोग संगीत सीखने आते हैं, मैं उन लोगों को इसी तरह सिखाने की कोशिश करता हूं. वर्तमान पीढ़ी के संगीतमय वातावरण में बहुत शोर है. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर यह पीढ़ी अपना अस्तित्व बनाए रखेगी और धैर्य के साथ कुछ करने में कामयाब रही तो यह और भी आगे जाएगी.” कलापिनी और उनके भतीजे भुवनेश ने कुमार गंधर्व प्रतिष्ठान के माध्यम से कुमार गंधर्व के गीतों सहित कई चीज़ों को संभाल कर रखा है.

1992 में कुमार गंधर्व का निधन हो गया. तब से तीन दशक बीत चुके हैं. आज की पीढ़ी ने कुमारजी को न कभी जीवित देखा है, न कभी उनके सामने बैठकर सुना है और न ही वे कुमारजी के बारे में ज़्यादा कुछ जानते हैं. लेकिन कुमार जी के संगीत का प्रभाव उन पर भी पड़ा. इसलिए कुमार जी की ऐसी चीज़ों को संरक्षित करना ज़रूरी है. भुवनेश कहते हैं, ”भारतीय शास्त्रीय संगीत में पंडित कुमार गंधर्व का स्थान सर्वोपरि है. उन्होंने भारतीय पारंपरिक संगीत में नए सौंदर्य स्थलों की खोज करके लोगों को नए तरीक़े से संगीत का आनंद लेना सिखाया. उन्होंने लोगों को सिखाया कि संगीत में कैसे सोचा जाए और उस विचार को कैसे व्यक्त किया जाए. मुझे लगता है कि यह उनका सबसे बड़ा योगदान है.” ”उनका विचार था कि संगीत वह माध्यम है जिसमें अभिव्यक्ति की सबसे अधिक संभावनाएं हैं और हमें इसके माध्यम से विभिन्न विषयों को दिखाने में सक्षम होना चाहिए. उनकी वजह से अब यह कहा जाता है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत कुमार गंधर्व से पहले कुछ और था और कुमार गंधर्व के बाद आज कुछ और है.”

Sanjeevni Today
Author: Sanjeevni Today

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