भगवान शिव की नगरी काशी में हर तरफ देवदीपावली की रौनक नजर आने लगी है। कल यानी पांच नवंबर को शाम होते ही पूरी काशी अलौकिक रोशनी से जगमगा उठेगी। अर्धचंद्राकार गंगा घाट से लेकर तालाब, कुंडों पर दीयों की लड़ियां अलग ही आकर्षण पैदा करती दिखाई देंगी। कार्तिक पूर्णिमा के दिन होने वाले इस देवदीपावली के पर्व का वर्णन वैसे तो पुराणों में भी मिलता है लेकिन आज पूरी दुनिया में यह जिस रूप में दिखाई देता है उसकी शुरुआत काशी से ही हुई थी। दान में मिले दो कनस्टर तेल से इसकी शुरुआत यहां के पचगंगा घाट से हुई। इसके बाद काशी नरेश के सहयोग से पांच युवकों के उत्साह ने इसे विश्व विख्यात पर्व बना दिया। देवदीपावली का अर्थ है ‘देवताओं की दीपावली’ है। मान्यता है कि इस दिन देवता पृथ्वी पर उतरते हैं और काशी के गंगा घाटों पर दीप जलाकर उत्सव मनाते हैं। ऐसे में इसकी पौराणिक और आधुनिक दोनों मान्यताओं के बारे में समझना महत्वपूर्ण हैं।
पहले पौराणिक मान्यता की बात करते हैं। स्कंद पुराण और शिव पुराण के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने असुर त्रिपुरासुर का वध किया था। त्रिपुरासुर ने ब्रह्मा की कठोर तपस्या से वरदान प्राप्त किया था कि उसे केवल ‘त्रिपुर संयोग’ (सूर्य, चंद्र और अग्नि का संयोग) में ही मारा जा सकता है। इस असुर के अत्याचार से त्रिलोकी (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) व्याकुल हो गई थी।
भगवान शिव ने पिनाक धनुष से बाण चलाकर तीनों लोकों पर बसे त्रिपुरासुर के तीन नगरों (सोने, चांदी और लोहे के) का संहार किया। इस विजय पर देवताओं ने प्रसन्न होकर काशी नगरी में दीप जलाकर उत्सव मनाया। काशी को चुना गया क्योंकि यह शिव की ज्योतिर्लिंग नगरी है और गंगा तट पर स्थित होने से आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र मानी जाती है। देवताओं ने गंगा स्नान किया, दीपदान किया और भगवान शिव की स्तुति की। तभी से यह परंपरा चली आ रही है कि कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को ‘देवता स्वयं दीप जलाते हैं’। इस कथा से देवदीपावली शिव-आराधना का प्रतीक बनी।
चार दशक पहले शुरू हुआ आधुनिक रूप
देवदीपावली के आधुनिक रूप चार दशक पहले शुरू हुआ और कई बदलावों के साथ आज पूरी दुनिया में छा चुका है। 1983 तक देवदीपावल यानी कार्तिक पूर्णिमा पर केवल स्नान-दान तक का महत्व था। बड़ी संख्या में लोग गंगा स्नान के लिए उमड़ते थे। यहां के पंचगंगा, दशाश्वमेध, असि घाटों पर स्नान के बाद दान करते थे। आधुनिक देवदीपावली की शुरुआत 1984 में हुई। वर्ष 1984 में दान में मिले दो कनस्तर तेल से सिंधिया घाट निवासी पं. विजय उपाध्याय ने पंचगंगा घाट पर दीप जलाए थे। तब से शुरू यह सिलसिला आज लाखों दीपों तक पहुंच चुका है।
वर्ष 1984 में पं. विजय उपाध्याय के संकल्प को अगले वर्ष सन 1985 में तत्कालीन काशी नरेश डॉ. विभूति नारायण सिंह का सहयोग एवं पांच उत्साही बालकों का साथ मिला। जन सहयोग से तेल-घी जुटाने के लिए चाय-पान की दुकानों पर टिन रखवाए गए। 1986 में केंद्रीय देवदीपावली महासमिति के गठन हुआ।
महासमिति ने प्रत्येक घाट पर उप समितियों का गठन कराया। 1992 में अयोध्या में ढांचा विध्वंस के बाद देवदीपावली की ओर बनारसियों का रुझान अचानक बहुत बढ़ गया। 1995 से 2000 के बीच इस उत्सव को विश्वव्यापी ख्याति मिलनी शुरू हुई। घाट के बाद कुंडों और तालाबों के किनारे भी दीप जलने लगे। सन 2000 में सबसे पहले लक्सा क्षेत्र में श्रीनगर कॉलोनी स्थित रामकुंड पर देवदीपावली मनाई गई।
इस बार क्या तैयारी
कल देवदीपावली पर अस्सी घाट, तुलसी घाट, जैन घाट, हरिश्चंद्र घाट, केदार घाट, मानसरोवर घाट, अहिल्याबाई घाट, दशाश्वमेध घाट, सिंधिया घाट, पंचगंगा घाट, बूंदी परकोटा घाट, गणेश घाट, शीतला घाट, भैसासुर घाट और नमो घाट पर गंगा पूजन और आरती होगी। इन घाटों पर तैयारी को भी अंतिम रूप दिया जा रहा है। प्रत्येक घाट की देवदीपावली उप समितियों के बीच दीयों और तेल का वितरण आज होगा।
चेतसिंह किले की प्राचीर पर लेजर शो
देवदीपावली पर गंगा किनारे चेतसिंह किले की प्राचीर पर लेजर शो से पौराणिक गाथाएं सजीव होंगी। शिव-पार्वती, गंगा, लक्ष्मी-नारायण सहित कई देवी-देवताओं से जुड़ी कथाएं कार्तिक पूर्णिमा की शाम आकर्षण का केंद्र होंगी। घाटों से लेकर नौकाओं-बजड़ों तक को सजाने का काम शुरू हो गया है। ज्यादातर बजड़ों पर ध्वजों के साथ रंगबिरंगी विद्युत झालरों का उपयोग किया जा रहा है। साथ ही बनावटी फूलों का भी प्रयोग किया जा रहा है। अस्सी, दशाश्वमेध और नमो घाट पर होने वाले प्रमुख आयोजनों की दृष्टि से बैरिकेडिंग का काम पूरा कर लिया गया है।
25 मिनट का लेजर शो रात्रि 8:15, 9:00 और 9:35 बजे होगा। ईसा पूर्व से आधुनिक युग तक काशी की यात्रा दिखेगी। संत कबीर, गोस्वामी तुलसीदास से बीएचयू तक की झलक भी दिखेगी। इसके अलावा गंगा पार रेत पर कोरियोग्राफ और सिंक्रोनाइज ग्रीन क्रैकर शो रात आठ बजे करेंगे। दस मिनट के शो में कई भक्ति गीतों पर रोशनी की लहरें थिरकती दिखेंगी। 1000 फीट लंबे रेत के स्ट्रेच पर 200 मीटर ऊंचाई तक आतिशबाजी जाएगी।
स्थान का चयन चुनौती
गंगा के बढ़े जलस्तर को ध्यान में रखते हुए रंगोली और दीपों से ऑपरेशन सिंदूर की थीम पर दीपाकृतियां बनाने के लिए स्थान का चयन एक चुनौती बना है। बीएचयू, विद्यापीठ के अलावा विभिन्न निजी आर्ट्स कॉलेजों के छात्र-छात्राएं सोमवार को उचित जगह की तलाश करते दिखे।
विभूतियों की स्मृति में जलेंगे दीप
अस्सी स्थित पुष्कर तालाब पर काशी की महान विभूतियों की स्मृति में दीप जलाए जाएंगे। महामना पं.मदनमोहन मालवीय, पद्मभूषण विदुषी गिरिजा देवी, पर्यावरणविद प्रो.वीरभद्र मिश्र, पद्मभूषण पं.किशन महाराज, शहनाई सम्राट बिस्मिल्लाह खां, पं.छन्नूलाल मिश्रा, पं.जगन्नाथ त्रिपाठी, पं.शारदा प्रसाद मिश्रा और पं. त्रिभुवननाथ मिश्रा का स्मरण कर दीपदान पुष्कर तालाब में किया जाएगा।






