जयपुर। जानेमाने न्यायविद और सेवा निवृत न्यायाधीश विनोद शंकर दवे देश में हिंदी को लेकर दक्षिणी राज्यों में चल रहे विवाद पर कहा कि मैं केंद्र सरकार के इकतरफा फैसले से सहमत नहीं हैं। उनका मानना हिंदी को थोपने की जरूरत नहीं है। बल्कि दक्षिण भारतीय भाषाओं को उत्तर भारतीय राज्यों में स्वीकृति और सम्मान दिलवाया जाए तो हिंदी के राष्ट्रभाषा बनाने का रास्ता निकल सकता है। सवाल एक दूसरे की स्वीकृति हासिल करने का है। उन्होंने समस्या की जड़ में लोगों की स्वार्थपूर्ण राजनीति और देश के प्रति कर्तव्यों से विमुख होते सामाजिक माहौल है।
न्यायाधीश दवे ने कहा कि संविधान निर्माण के वक्त नेहरूजी ने जोर दिया था कि संविधान में ड्यूटी (कर्तव्य) का चेप्टर जोड़ा जाना चाहिए। संविधान सभा के अनेक वरिष्ठ सदस्य मानते थे कि आजादी की लड़ाई लड़ने वाले नागरिक अपने देश के प्रति कर्तव्यों को समझते हैं और वो खुदबखुद उसे पूरा करेंगे। इनको लिखने की जरूरत नहीं है। लेकिन आज परिणाम यह है कि हम संविधान में बताये गए कर्तव्यों को भूल गए है। यह गिरावट हमारी लीडरशिप में ही नहीं ब्यूरोक्रेसी में भी आई है और उसका असर जनता पर भी देखा जा सकता है। हमारे कामकाज में मशीन का जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप हो गया है और दिमाग का इस्तेमाल घट रहा है। यह स्थिति चिंता का विषय है। यह विचार है सेवानिवृत न्यायाधीश विनोद शंकर दवे के जिन्होंने राजस्थान राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, जयपुर की नवनिर्वाचित कार्यकारिणी को शपथ समारोह में व्यक्त किये।
न्यायाधीश दवे ने कहा कि न्याय व्यवस्था में और शिक्षण संस्थाओं में हिंदी को आगे बढाया गया है लेकिन सफलता ज्यादा हासिल नहीं हो सकी है।
इस मौके पर नवनिर्वाचित कार्यकारिणी के अध्यक्ष देवेंद्र शास्त्री, उपाध्यक्ष डी के छंगाणी, सचिव प्रकाश चतुर्वेदी और कोषाध्यक्ष ललित कुमार ने भी विचार रखे। न्यायाधीश दवे ने इस मौके पर राजस्थान राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के हिंदी भवन की लाइब्रेरी के लिए अपनी नई प्रकाशित पुस्तक “हम पढ़ें, समझें अपना कानून ” की एक प्रति भी भेंट की।
