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July 7, 2025 8:55 pm

बसपा के लिए क्या सियासी संजीवनी बन पाएंगे……’बिहार में होगी आकाश आनंद पहली परीक्षा……

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बहुजन समाज पार्टी (BSP) में घर वापसी करने के बाद आकाश आनंद अब बिहार के सियासी रण में उतरने जा रहे हैं. छत्रपति शाहूजी महाराज की जयंती पर 26 जून को आकाश आनंद बिहार में पहली बार जनसभा को संबोधित करेंगे. इसके बाद वह बिहार संगठन की बैठक करेंगे. इस तरह मायावती के भतीजे और पार्टी के राष्ट्रीय चीफ कोऑर्डिनेटर आकाश आनंद की पहली सियासी परिक्षा बिहार में होने जा रही है, लेकिन सवाल यही है कि क्या पार्टी को सियासी संजीवनी दे पाएंगे?

बिहार में विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर में होना है, जिसे लेकर सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है. बसपा प्रमुख मायावती ने बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का प्लान बनाया है. बसपा प्रमुख ने पार्टी के राष्ट्रीय कोऑर्डिनेटर रामजी गौतम और केंद्रीय प्रदेश प्रभारी अनिल कुमार को बिहार चुनाव की कमान सौंप रखी है, जो सभी 243 सीटों पर उम्मीदवारों की तलाश में जुटे हैं. अब बसपा के पक्ष में सियासी माहौल बनाने के लिए मायावती के भतीजे आकाश आनंद उतरने जा रहे हैं.

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मिशन बिहार का आकाश करेंगे आगाज

आकाश आनंद बसपा के मिशन बिहार का आगाज करने के लिए 26 जून को उतर रहे हैं. छत्रपति शाहूजी महाराज की जयंती के मौके पर आकाश आनंद बिहार की राजधानी पटना में एक जनसभा को संबोधित करेंगे. आकाश की पहली जनसभा को इनडोर ऑडिटोरियम में करने की प्लानिंग की गई है. वह बसपा कार्यकर्ताओं के साथ संगठन की बैठकों में भी भाग लेंगे और उन्हें संबोधित करेंगे.

बसपा ने पटना में यह आयोजन छत्रपति शाहूजी महाराज की जयंती पर कर रही है, जिसके सियासी मायने को समझा जा सकता है. इस तरह से बसपा दलित और ओबीसी वोटों को सियासी संदेश देने की रणनीति है. बसपा के चुनाव अभियान को औपचारिक तौर से आगाज भी बिहार में माना जा रहा है. इसके बाद से बसपा पूरे प्रदेश में आकाश आनंद की रैली होती नजर आएगी. इससे यह लगता है कि उन्हें बिहार चुनाव की जिम्मेदारी दी जा सकती है.

बसपा की चुनावी राह आसान नहीं

आकाश आनंद भले ही बिहार में चुनावी अभियान का आगाज करने के लिए उतर रहे हों, लेकिन बसपा की सियासी राह सूबे में आसान नहीं दिख रही है. 2009 के बाद बसपा का खाता बिहार में 2020 के चुनाव में खुला था. बसपा सिर्फ एक सीट जीतने में कामयाब रही थी, पर चुनाव के बाद वो विधायक भी जेडीयू में चल गया. बसपा में पहली बार नहीं है, पार्टी के जब-जब विधायक जीते हैं, वो बाद में दूसरी पार्टी में चले गए.

बिहार में बसपा की राजनीतिक राह इस बार काफी मुश्किलों भरी नजर आ रही है. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि बसपा का सियासी आधार लगातार कमजोर हुआ है और बिहार की चुनावी लड़ाई दो गठबंधनों के बीच सिमटती दिख रही है. ऐसे में बसपा का अकेले चुनाव में उतरकर जीतना किसी लोहे से चने चबाने जैसा है.

बिहार में बसपा का सियासी सफर कैसा रहा

बसपा का गठन अस्सी के दशक में हुआ, लेकिन बिहार में पार्टी ने चुनावी आगाज 1989 से किया. तब बसपा ने उत्तर प्रदेश से सटे दर्जन भर लोकसभा क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारे थे, मगर कोई सफलता नहीं मिली थी. बिहार में बसपा का सबसे बेहतर प्रदर्शन साल 2000 के विधानसभा चुनाव में रहा जब उसने 249 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5 सीटों पर जीत हासिल की थी. इसके बाद अक्टूबर 2005 चुनाव में बीएसपी ने 212 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, जिनमें सिर्फ से चार सीटों पर जीत मिली और पार्टी को 4.17 फीसदी वोट मिले.

साल में 2010 में बसपा अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी. ऐसे ही 2015 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा को कोई सफलता हाथ नहीं लगी जबकि मायावती ने इस चुनाव में 228 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे. इसके बाद 2020 में बसपा असदुद्दीन ओवैसी, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी से गठबंधन कर चुनाव लड़ी थी. बसपा ने 28 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिसमें सिर्फ जीत चैनपुर सीट पर मिली. जमा खां विधायक चुने गए, लेकिन बाद में उन्होंने पार्टी छोड़ दी. बसपा को जब भी जीत मिली चुनाव के बाद वो सभी पार्टी छोड़ गए.

बिहार में दलित सियासत पर बसपा की नजर

बिहार में दलित समुदाय की आबादी करीब 18 फीसदी है और बसपा का सियासी इन्हीं दलित वोटों पर निर्भर है. 2005 में नीतीश कुमार की सरकार ने 22 में से 21 दलित जातियों को महादलित घोषित कर दिया था और 2018 में पासवान भी महादलित वर्ग में शामिल हो गए. इस हिसाब से बिहार में अब दलित के बदले महादलित जातियां ही रह गई हैं.

प्रदेश के 18 फीसदी दलित समुदाय में अधिक पासवान, मुसहर और रविदास समाज की जनसंख्या है. वर्तमान में साढ़े पांच फीसदी से अधिक मुसहर, चार फीसदी रविदास और साढ़े तीन फीसदी से अधिक पासवान जाति के लोग हैं. इनके अलावा धोबी, पासी, गोड़ आदि जातियों की भागीदारी अच्छी खासी है. बिहार में बसपा का आधार सिर्फ रविदास समाज के बीच रहा, जो कांग्रेस का कोर वोटबैंक माना जाता है. कांग्रेस इसी वोटबैंक को साधने के लिए अपना प्रदेश अध्यक्ष बना रखा है और राहुल गांधी लगातार दलितों को साध रहे हैं.

यूपी की तरह बिहार में बसपा नहीं रही सफल

उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने जिस तरह से दलित समुदाय में राजनीतिक चेतना के लिए संघर्ष किया वैसा बसपा ने कोई आंदोलन बिहार में नहीं किया है. इसीलिए बसपा बिहार में दलित राजनीति कभी स्थापित नहीं हो सकी है. माना जाता है कि बसपा सिर्फ बिहार में चुनाव लड़ने का काम करती है, यहां उसका न तो कोई जमीनी संगठन है और न ही कोई राजनीति प्लान. चुनाव के दौरान मायावती को बिहार की याद आती है और पांच साल तक कोई चिंता नहीं सताती है.

बिहार में दलित राजनीति दूसरे राज्यों से काफी अलग है. बिहार में दलित समुदाय हर चुनाव में अपना मसीहा तलाशता है. कांग्रेस के बाबू जगजीवन राम बिहार में दलितों के बड़े नेता रहे हैं. उनके बाद उनकी बेटी मीरा कुमार ने उनकी विरासत संभाला लेकिन वो उतने बड़े जनाधार वाली नेता नहीं बन सकीं. रामविलास पासवान महज अपनी बिरादरी के नेता बनकर रहे गए. इसीलिए हर चुनाव में दलित समुदाय का वोटिंग पैटर्न बदलता रहा है.

यूपी से लगे हुए बिहार के कुछ इलाके में बसपा का अपना जनाधार है, लेकिन पूरे बिहार में न तो पार्टी खड़ी हो सकी और न ही कोई सक्रिय भूमिका में कभी दिखी. इसके पीछे एक वजह यह भी रही कि कांशीराम ने जितना फोकस यूपी पर किया, उतना बिहार में नहीं कर सके. उन्हें बिहार में मायावती जैसा कोई नेता नहीं मिला, जो उनके मिशन को लेकर राज्य में आगे बढ़ सके. बिहार में दलित नेताओं का भी दायरा सीमित रहा है.

आकाश क्या बसपा को दे पाएंगे संजीवनी

बिहार में सभी दलों की नजर दलित वोटबैंक पर है. बीजेपी बिहार में चिराग पासवान और जीतनराम मांझी को अपने साथ रखकर दुसाध और मुसहर समुदाय को अपने सियासी पाले में रखने का दांव चल चुकी है. इसके अलावा नीतीश कुमार के जरिए दूसरे दलित समाज को भी साधने की रणनीति पर काम कर रही है. आरजेडी के अगुवाई वाले इंडिया गठबंधन में पशुपति पारस के जरिए दुसाध समाज को पाले में करने में की रणनीति है तो कांग्रेस ने राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर रविदास समाज को सियासी संदेश दिया है. इसके अलावा राहुल गांधी लगातार दलित वोटों पर फोकस कर रहे हैं.

बिहार में चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी और प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी का फोकस भी दलित वोटों पर ही है. ऐसे में आकाश आनंद के सामने बिहार के दलित समुदाय को साधने की चुनौती खड़ी हो गई है. आकाश आनंद अभी तक कोई बड़ी राजनीतिक सफलता हासिल नहीं कर सके हैं. ऐसे में बिहार का चुनाव उनके लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है. अब देखना है कि आकाश प्रदेश में बसपा की चुनावी नैया को पार लगा पाते हैं कि नहीं?

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