चूंकि रूस, भारत का सबसे भरोसेमंद देश है, इसलिए उसकी चिंता को भारत हमेशा अपनी चिंता समझते आया है। ठीक इसी प्रकार से रूस को भी भारत की चिंताओं को अपनी चिंता समझनी चाहिए, भले ही वह चीन से ही जुड़ीं हुईं क्यों न हो! अक्सर देखा जाता है कि भारत-पाकिस्तान मामलों में रूस मुखर हो जाता है, लेकिन भारत-चीन मामलों में मौन! आखिर ऐसा क्यों और कबतक? वहीं, भारत का नया दोस्त अमेरिका, भारत-चीन मामलों में तो मुखर रहता है, लेकिन भारत-पाकिस्तान मामलों में वह थोड़ा पाकिस्तान की तरफ झुक जाता है, ताकि युद्ध बढ़े, हथियार बिके! भारत इन कूटनीतिक चतुराइयों को बखूबी समझते आया है, इसलिए वह गुटनिरपेक्ष बने रहते हुए भी अमेरिका के मुकाबले रूस से ज्यादा सहानुभूति रखता है।
कूटनीतिक मामलों के जानकारों के मुताबिक, भारत-रूस जैसे मजबूत देशों के ‘कॉमन शत्रु’ अमेरिका-ग्रेट ब्रिटेन समझे जाते हैं। इसलिए यूरोप-अमेरिका खासकर यूएसए-यूनाइटेड किंगडम से मुकाबले के लिए रूस को भारत की जरूरत हमेशा पड़ेगी। भले ही चीन उसके साथ हो, किन्तु उसके अलावा भारत की जरूरत भी उसे निश्चित रूप से पड़ेगी, क्योंकि मौजूदा भू-राजनीतिक समीकरण में गुटनिरपेक्ष भारत जिसके पाले में जायेगा, उसे मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलेगी।
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इसलिए वक्त का तकाजा है कि “नई दिल्ली-मॉस्को डिप्लोमैटिक एक्सप्रेस वे” को बहुत ही तल्लीनता पूर्वक नया आकार दिया जाए। इस नजरिए से रूस के अलावा चीन को भी समझदारी दिखानी पड़ेगी, अन्यथा पश्चिमी देश अपने दूरगामी हितों की पूर्ति के लिए उसे नष्ट करके ही दम लेंगे। इस बात में कोई दो राय नहीं कि चीन को मजबूत आर्थिक व वैज्ञानिक ताकत बनाने में अमेरिका की बड़ी भूमिका है। हालांकि अब चीन, अमेरिका के लिए भस्मासुर बन चुका है, इसलिए अमेरिका उसे पड़ोसियों के साथ उलझकर बर्बाद करना चाहता है, ताकि दुनिया के थानेदार के रूप में उसकी गद्दी सुरक्षित रहे।
याद दिला दें कि जैसे यूएसएसआर को अमेरिका ने 1980 के दशक में छिन्न-भिन्न करवा दिया और उसके मजबूत उत्तराधिकारी रूस को यूक्रेन से अबतक उलझाए रखा है। वहीं, चीन को ताइवान-भारत से उलझाकर बर्बाद करना चाहता है। जबकि भारत के खिलाफ पाकिस्तान-बंगलादेश की पीठ ठोकने में कभी प्रत्यक्ष तो कभी छुपे रुस्तम की भूमिका निभाता है। इसलिए रूस-चीन-भारत के त्रिकोण और ब्रिक्स देशों के नेतृत्व को बारीक कूटनीति करनी होगी, ताकि दुनिया पर पश्चिमी देशों के शिकंजे को कमजोर करके एशियाई हित साधा जा सके।
इस प्रकार भारत-रूस के ऐतिहासिक सम्बन्धों की दिशा में यदि कोई बाधक तत्व है तो वह चीन की भारत सम्बन्धी ‘खलनीति’ वाली कूटनीति! देखा जाए तो जिस तरह से चीन ने कभी भारतीय भूभाग रहे स्वायत्त तिब्बत प्रदेश पर 1950 के दशक में कब्जा जमाया और उसे जायज ठहराने के लिए 1962 में भारत पर युद्ध थोपा दिया, वह उसकी दुष्टता की पराकाष्ठा थी।
ततपश्चात चीन ने पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश को संरक्षण दिया, जो भारतीय गरिमा के खिलाफ है। चूंकि चीन, अपनी कूटनीति के तहत भारत के पड़ोसी देशों-नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान के अलावा विभिन्न अरब देशों-ईरान, टर्की और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों- इंडोनेशिया, मलेशिया आदि को भारत के खिलाफ भड़काते हुए पाकिस्तान के करीब लाने में मदद करता है, इसलिए भारत को रूस के अलावा अमेरिका और यूरोप को भी साधना पड़ा!
दरअसल, दुनियावी भू-राजनीति में 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में सोवियत संघ के पतन और भूमंडलीकरण, निजीकरण के बाद वर्ष 2000 के दशक में एक ऐसा मोड़ आया, जब पूरी दुनिया ने यह महसूस किया कि बेलगाम इस्लामिक आतंकवाद के उन्मूलन के लिए भारत और अमेरिका-यूरोप का साथ आना जरूरी है। चूंकि इस मुद्दे पर दोनों समूहों की चिंताएं साझी प्रतीत हो रही थीं। इसलिए भारत ने भी अमेरिका से दोस्ती का हाथ बढ़ाया, जो कि रूस को नागवार गुजरी।
यह बात एक हद तक इसलिए भी सही थी कि अमेरिका-यूरोप कभी भी किसी देश के प्रति वफादार नहीं रहते। इसलिए भारत सदैव इस नई दोस्ती से सतर्क रहा। उसने उत्साहपूर्वक कभी भी रूस-चीन विरोधी पहल में बढ़चढ़ कर हिस्सा नहीं मिला। सिर्फ अपने प्रतिरक्षात्मक हितों को ही वरीयता दिया। इसलिए ढाई दशक बाद ही सही लेकिन ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के बाद दिखाई पड़ी अमेरिकी-यूरोपीय बौखलाहट ने भारत के कान खड़े कर दिए हैं। पहलगाम आतंकी बारदात के बाद शुरू किए गए ऑपरेशन सिंदूर में भारत की सफलता से घबराए अमेरिका ने जिस तरह से चीन को साधकर आईएमएफ से उसे अरबों डॉलर की मदद दिलवाई, उससे वह बेनकाब हो चुका है। भारत के लिए अमेरिका-इंग्लैंड शुरू से ही अविश्वसनीय रहे हैं।
चूंकि, इन नए रिश्तों के प्रति भारत शुरू से ही चौकन्ना रहा है, इसलिए आज भी भारतीय हित सुरक्षित हैं। कहना न होगा कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान में धार्मिक आतंकवाद का बीजारोपण और उन्हें परोक्ष संरक्षण अमेरिका-यूरोप की गुप्त आधिकारिक और कारोबारी नीति रही है, जिनका मकसद एशिया में पहले सोवियत संघ (रूस) और अब चीन व भारत के प्रभाव को कम करना है। इसलिए भारत इनके साथ शुरू से ही फूंक फूंक कर कदम बढ़ा रहा है। यही वजह है कि भारत के रिश्ते सबके साथ समझदारी भरे हैं। चूंकि भारत स्वहित के अलावा साउथ ग्लोबल यानी तीसरी दुनिया के देशों का भी हित साधना चाहता है, इसलिए वह जी7 के दांवपेचों को अच्छी तरह से समझता है और जी 20 में उन्हें संतुलित करता है।
ऐसे में रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव द्वारा 15 मई 2025 को यह कहना कि पश्चिम के देश भारत और चीन को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं, सही वक्त पर उठाई हुई सटीक आवाज है। लिहाजा, इस मामले में भारत और चीन को इतिहास की गलतियों को करेक्ट करते हुए आगे बढ़ना होगा, क्योंकि दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। दरअसल, मास्को में एक समिट के दौरान उन्होंने एशिया पैसिफिक क्षेत्र का उदाहरण देते हुए कहा कि ये देखना जरूरी है कि अभी क्या हो रहा है? क्योंकि पश्चिम के देशों ने अपनी नीति को मोटे तौर पर चीन विरोधी दिशा देने के लिए इस क्षेत्र को हिंद प्रशांत क्षेत्र कहना शुरू कर दिया है।
उन्होंने खुलासा किया कि इसके जरिए पश्चिम देश इस उम्मीद में हैं कि पड़ोसी देशों चीन और भारत के बीच टकराव पैदा किया जा सके। इसके साथ ही लवरोव ने आसियान का भी जिक्र किया और कहा कि पश्चिम के देश आसियान की भूमिका को भी कम करने की भी कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने दावा किया कि पश्चिमी देश दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह यहां भी प्रभावशाली रोल में आना चाहते हैं, जिससे आसियान की केंद्रीयता प्रभावित हो सके।
इस मौके पर लावरोव ने यूरेशिया के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि इस क्षेत्र में भी एक ऐसे मंच की जरूरत है जो समन्वय और सामंजस्य की दिशा में आगे बढ़ सके। इसलिए रूसी विदेश मंत्रालय ने भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव रोकने स्वागत भी किया है। वहीं, एक आधिकारिक बयान में कहा गया कि रूस उम्मीद करता है कि जो हालात नॉर्मलाइजेशन की ओर बढ़े हैं, वो स्थायी रहें। इसके साथ ही इस बयान में भारत और पाकिस्तान दोनों देशों को अपने मुद्दे राजनीतिक और कूटनीतिक तरीके से सुलझाने के लिए कहा गया है।
यहां तक तो ठीक है, लेकिन चीन को यह समझना होगा कि वह अरुणाचल प्रदेश, पीओके पर अपना नया पैंतरा छोड़ दे। वहीं तिब्बत में अपने दुस्साहस को दुरुस्त करे। वह आसेतु हिमालय के 7-8 देशों में भारत के रणनीतिक हित को तवज्जो दे और अपने साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति के लिए अरब-यूरोप या अपने उत्तरी-पूर्वी भूभाग की ओर बढ़े। अन्यथा रूस-चीन-भारत के त्रिकोण कभी सफल नहीं होंगे। अब भारत ने जिस तरह से अमेरिका व यूरोपीय देशों को रणनीतिक मामलों में हड़काना शुरू किया है, और रूस के प्रति अपनी वफादारी निभाई है, उससे स्पष्ट है कि नए भारत के रणनीतिक हितों की उपेक्षा जो भी करेगा, वह कूटनीतिक शतरंज की विसात पर पीटा जाएगा। रूस यदि चीन को यह बात समझाने में कामयाब रहा तो वह दुनिया का नया थानेदार बन सकता है। क्योंकि अमेरिकी हरामीपन से दुनिया को निजात दिलवाना समझदार विश्व की आज पहली जरूरत है!
