चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल ही में तिब्बत की यात्रा की है. इस यात्रा के दौरान एक बार फिर जिनपिंग ने साफ कर दिया है कि बीजिंग अब बौद्ध धर्म को अपनी विचारधारा और समाजवादी ढांचे के मुताबिक ढालने के लिए कदम तेज करेगा. यह बदलाव सिर्फ धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि भाषा, संस्कृति और प्रशासनिक ढांचे तक फैलेगा.
ल्हासा में आयोजित समारोह में शी जिनपिंग ने जोर देकर कहा कि तिब्बती बौद्ध धर्म को समाजवादी समाज में ढलना होगा. इसका सीधा मतलब यह है कि धर्म का स्वरूप अब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सोच के मुताबिक गढ़ा जाएगा. चीन लंबे समय से धर्मों चीनी पहचान देने की नीति पर काम कर रहा है.
धर्म और सरकार का अलगाव
शी जिनपिंग और उनके साथ पहुंचे वरिष्ठ अधिकारियों ने यह भी दोहराया कि तिब्बत का भविष्य पार्टी की मज़बूत पकड़ और धर्म-राजनीति के अलगाव में ही सुरक्षित है. तिब्बत में कभी धार्मिक नेताओं का शासन रहा करता था, लेकिन 1950 के दशक में चीनी कब्ज़े के बाद से वहां का राजनीतिक ढांचा पूरी तरह बदला गया. अब चीन साफ संदेश दे रहा है कि धर्म सिर्फ आध्यात्मिक जीवन तक सीमित रहे, राजनीतिक सत्ता पर उसका कोई असर न हो. यहां तक कि दलाई लामा के पुनर्जन्म को तय करने का अधिकार भी बीजिंग अपने पास रखता है.
भाषा और संस्कृति में हस्तक्षेप
तिब्बती पहचान का सबसे अहम हिस्सा उनकी भाषा और संस्कृति है. शी जिनपिंग ने अपनी यात्रा के दौरान कहा कि मंदारिन यानी चीनी भाषा को तिब्बत में और मज़बूती से फैलाना होगा. स्कूलों, दफ्तरों और प्रशासन में मंदारिन का प्रयोग बढ़ाने के लिए नए कार्यक्रम लागू किए जा रहे हैं. धार्मिक साहित्य और शिक्षा में भी बदलाव की तैयारी है ताकि बौद्ध अनुयायी चीन की आधुनिक सोच के हिसाब से ढलें. आलोचकों का कहना है कि यह कदम तिब्बती संस्कृति को धीरे-धीरे कमजोर कर सकता है.
तिब्बत में चीन को दिलचस्पी क्यों है?
बीजिंग के लिए तिब्बत सिर्फ धार्मिक या सांस्कृतिक मामला नहीं है, बल्कि एक रणनीतिक मोर्चा भी है. भारत से सटी सीमा, विशाल प्राकृतिक संसाधन और जलस्रोत तिब्बत को चीन के लिए बेहद अहम बनाते हैं. इसी कारण पार्टी नेतृत्व लगातार कह रहा है कि देश पर राज करने के लिए पहले सीमाओं पर राज करना होगा, और सीमाओं को संभालने के लिए तिब्बत पर नियंत्रण होना जरूरी है. तिब्बत में बड़े हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स और इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं को भी इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है.
चीन के इन कदमों की होती रही है आलोचना
हालांकि चीन अपने कदमों को विकास और एकता का नाम देता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस नीति को सांस्कृतिक दमन बताया जा रहा है. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि धार्मिक गतिविधियों पर सख्ती, मठों की निगरानी और भाषा पर पाबंदियां तिब्बतियों की अस्मिता को नुकसान पहुंचा रही हैं. 2008 के तिब्बती विद्रोह के बाद से वहां सुरक्षा और निगरानी और कड़ी कर दी गई है.
