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October 8, 2025 5:38 am

1998 में विनोद खन्ना ने तोड़ा कांग्रेस का गढ़, गुरदासपुर से 4 बार जीते लोकसभा

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6 अक्टूबर 1946 को जन्मे विनोद खन्ना की पूरी जिंदगी नाटकीयता से भरी रही. सुपरस्टार तक पहुचंना, फिर अचानक ‘संन्यासी’ बन जाना, दोबारा से फिल्मों में सफल वापसी के बाद राजनीति में हाथ आजमाना और केंद्र में
मंत्री पद तक पहुचंना. सबकुछ फिल्मी रहा… दिसंबर 1997 में जब विनोद खन्ना भाजपा में शामिल हुए तो उन्हें अगले ही साल फरवरी में प्रस्तावित लोकसभा का चुनाव पंजाब के गुरदासपुर से लड़ने को कह दिया गया. इस निर्देश से खन्ना हैरान रह गए.

दरअसल, जैसा कि बाद में उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था, “मुझे यही पता नहीं था कि गुरुदासपुर कहां है!” लेकिन चुनौती को उन्होंने पूरे मनोयोग से स्वीकार किया. परिणाम यह हुआ कि उन्होंने कांग्रेस की दिग्गज नेत्री सुखबंस कौर भिंडर को हराकर उस सीट पर भाजपा का परचम फहरा दिया, जो लंबे समय से कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थी. इसके बाद वे और तीन बार इसी निर्वाचन क्षेत्र से विजयी रहे.
खन्ना की पूरी जिंदगी एक फिल्म की तरह ड्रामैटिक रही. उनका फिल्मी कॅरियर साठ के दशक के अंत में शुरू हुआ था. अच्छे चेहरे-मोहरे और स्टार अपील की बदौलत वे जल्द ही सफलता के शीर्ष पर पहुंच गए. सत्तर के दशक के आखिर तक तो वे सुपरस्टार की दावेदारी में अमिताभ बच्चन को टक्कर देने लगे थे. कई मल्टी-स्टारर फिल्मों जैसे हेराफेरी (1976), परवरिश, खून पसीना और अमर-अकबर एंथोनी (सभी 1977) में वे अमिताभ के साथ भी नजर आए. उनका स्टारडम इतना सिर चढ़कर बोल रहा था कि माना गया कि इन सभी फिल्मों में उन्हें बिग बी से अधिक मेहनताना मिला.
जब विनोद खन्ना पर ‘ओशो’ का चला जादू
खन्ना एक समय आचार्य रजनीश ‘ओशो’ के दर्शन से बेहद प्रभावित थे. वे हर सप्ताहांत PUNE  स्थित ओशो आश्रम जाने लगे. और फिर 1980 में एक दिन अचानक से वे अपना भरा-पूरा करियर छोड़कर पूरी तरह से अध्यात्म की शरण में चले गए. जल्द ही उन्होंने फिल्मों से संन्यास की घोषणा कर दी. फिल्मी पत्रिकाओं में उन्हें ‘सेक्सी संन्यासी’ तक लिखा जाने लगा. आध्यात्मिक शांति की तलाश में वे अमेरिका के ओरेगन स्थित रजनीशपुरम में ओशो के साथ रहने लगे. वहां उन्होंने माली, शौचालय की सफाई और बर्तन साफ करने जैसे काम भी किए. मगर चार साल बाद ही उनका वहां से मोहभंग हो गया. उन्होंने वापस लौटने का मन बना लिया. खन्ना ने एक इंटरव्यू में कहा था, “उन्होंने (ओशो) मुझे पुणे आश्रम का संचालन करने को कहा. मैंने इससे इनकार कर दिया. यह मेरी जिंदगी का सबसे कठिन ‘नो’ (No) था. मैं वापस अपने काम पर और परिवार के पास लौट आया. सौभाग्य से, जब मैंने फिल्मों में वापसी की तो मुझे स्वीकार भी कर लिया गया.” 1990-91 में वे MUMBAI  में सबसे ज्यादा
टैक्स देने वाले एक्टर बन गए थे, जो दर्शाता था कि वे अपने फिल्मी करियर में फिर से ट्रैक पर आ चुके थे.
भाजपा में ही क्यों शामिल हुए?
खन्ना ने 1998 में दिए एक इंटरव्यू में बताया था कि वे भाजपा में इसलिए शामिल हुए, क्योंकि उनका हिंदुत्व दर्शन में गहन विश्वास था. उन्होंने उस समय कहा था, “मुझे लगा कि यह चुनाव लड़ने का सही समय और सही पार्टी है.” उन्होंने इन अटकलों को निराधार बताया कि पहले ही सांसद बन चुके शत्रुघ्न सिन्हा ने उन्हें भाजपा में लाने में अहम भूमिका निभाई. हालांकि उन्होंने स्वयं हेमा मालिनी को राजनीति में आने के लिए प्रेरणा जरूर दी. खन्ना के देहांत के अगले दिन 27 अप्रैल 2017 को एक इंटरव्यू में मालिनी ने स्वीकार किया था कि राजनीति में आने के लिए उन्हें खन्ना ने ही प्रेरित किया था. बकौल मालिनी, “एक दिन विनोद ने मुझे फोन कर कहा कि वे GURDASPUR  से चुनाव लड़ रहे हैं और चाहते हैं कि मैं उनके लिए प्रचार करने आऊं. मैंने यह कहते हुए सीधे मना कर दिया कि मुझे राजनीति के बारे में कुछ भी नहीं पता. लेकिन वे जोर देते रहे. अंतत: मेरी मां ने कहा कि मुझे उनके प्रचार के लिए जाना चाहिए. इस तरह मेरे राजनीतिक करियर की शुरुआत हुई.”
विरोधी उम्मीदवार के थे चहेते ‘हीरो’
PUNJAB विधानसभा में मौजूदा नेता प्रतिपक्ष और राज्य की राजनीति के धुरंधर कांग्रेसी नेता प्रताप सिंह बाजवा ने 2009 में गुरदासपुर लोकसभा सीट से विनोद खन्ना को हराया था. दिलचस्प बात यह है कि खन्ना कभी बाजवा के चहेते एक्टर हुआ करते थे, इतने चहेते कि बचपन में उनकी नई फिल्म देखने के लिए स्कूल बंक करने से भी नहीं चूके. इसलिए जब 2009 में कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें गुरदासपुर से खन्ना के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने को कहा तो शुरू में वे हिचके. वे अपने ‘बचपन के हीरो’ के खिलाफ लड़ने से बचना चाहते थे. उन्होंने खन्ना के निधन के बाद एक इंटरव्यू में कहा था, “वे मेरे सबसे पसंदीदा एक्टर रहे.” अपने ऊपर ‘बाहरी’ का तमगा लगने के बावजूद खन्ना ने गुरदासपुर से चार बार (1998, 1999, 2004 और 2014 में) जीत हासिल की.
विदेश राज्य मंत्री के पद तक पहुंचे
शत्रुघ्न सिन्हा के साथ खन्ना भी उन BOLLYWOOD सितारों के शुरुआती समूह का हिस्सा रहे, जिन्हें केंद्र सरकार में मंत्री बनने का सौभाग्य मिला. जुलाई 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी ने खन्ना को केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन राज्य मंत्री बनाया. बाद में कुछ समय उन्होंने विदेश मंत्रालय में भी बतौर राज्य मंत्री कार्य किया. खन्ना अक्टूबर 2001 से मार्च 2005 के बीच चार साल फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) में सक्रिय रहे. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने भी इस संस्था में खन्ना के योगदान को स्वीकारा और 2004 के चुनाव में भाजपा-नीत एनडीए की हार के बाद भी उन्हें एक साल तक FTII जनरल काउंसिल का प्रमुख बने रहने दिया.
जब पिता ने तान दी थी गन…
विनोद खन्ना की फिल्मों में एंट्री का एक दिलचस्प किस्सा भी है. उनके पिता व्यवसायी थे और चाहते थे कि उनका पुत्र उनके व्यवयास में हाथ बंटाए. 1968 में जब खन्ना केवल 22 साल के थे, उस समय मुंबई में एक पार्टी में उनकी मुलाकात सुनील दत्त से हो गई. वे दो हीरो को लेकर एक फिल्म बना रहे थे. एक हीरो के रूप में उन्होंने अपने भाई सोम दत्त को ले रखा था. उन्होंने दूसरे हीरो का रोल विनोद खन्ना को ऑफर कर दिया. बकौल खन्ना, “जब मेरे पिता को इसका पता चला तो उन्होंने मेरे सिर पर गन रख दी और कहा कि अगर मैंने बॉलीवुड में कदम भी रखे तो वे मुझे शूट कर देंगे. तब मेरी मां ने उन्हें समझाया कि वो मुझे केवल दो साल तक किस्मत आजमाने का मौका दें. अगर वहां मैं नहीं चला तो फैमिली बिजनेस में आ जाऊंगा.”
लेकिन जब 1969 में उनकी यह पहली फिल्म ‘मन का मीत’ रिलीज हुई तो उनके अभिनय की खूब सराहना हुई, इतनी कि एक ही सप्ताह में उनकी झोली में 15 फिल्मों के ऑफर आ गए थे.
Pooja Reporter
Author: Pooja Reporter

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