Explore

Search

October 15, 2025 11:21 am

Hola Mohalla: जानें इसके पीछे की पूरी कथा…….’कैसे हुई होला मोहल्ला के पर्व की शुरुआत……

WhatsApp
Facebook
Twitter
Email

Hola Mohalla: सिख इतिहास का अगर गहराई से अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोबिन्द सिंह जी तक सभी गुरु साहिबानों ने स्वच्छ और उन्नत राष्ट्र का निर्माण करना था। इस महान कार्य हेतु समाज में प्रचलित त्यौहारों को मनाने के ढंग में इंकलाबी परिवर्तन लाना अनिवार्य था। भारतवर्ष के प्राचीन और पारम्परिक त्यौहार होली को ‘होला महल्ला’ के रूप में मनाने का इंकलाबी तरीका अपनाया गुरु गोबिन्द सिंह जी ने।

‘होला’ अरबी का शब्द है तथा ‘महल्ला’ फारसी भाषा का। विद्घानों के अनुसार ‘होला’ अर्थात हमला तथा ‘महल्ला’ अर्थात हमला करने का स्थान। यह केवल शब्द परिवर्तन ही नहीं था, अपितु 17वीं शताब्दी के भारत में दबे-कुचले व दीन-हीन हो चुके भारतीयों को गुलाम मानसिकता से निकालकर उनमें स्वतंत्रता और निर्भयता की सोच का निर्माण करना था। मुगल हुकूमत के समय आम भारतीय को घुड़सवारी करना, सिर पर पगड़ी बांधना, फौज रखना, अलग निशान लेकर चलना, नगाड़ा बजाना आदि की सख्त मनाही थी लेकिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने इन प्रतिबंधों को नकारते हुए इन सभी को होले महल्ले का अनिवार्य अंग घोषित कर दिया।

कहा- ‘मैं इससे बाहर निकलना चाहती हूं’……..’इस पोर्न स्टार ने रमजान के दिनों में एडल्ट इंडस्ट्री से किया तौबा…..

सिख इतिहासकार भाई काहन सिंह नाभा के अनुसार, ‘‘गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसे को शस्त्र विद्या में निपुण करने हेतु यह रीति चलाई थी।’’

गुरु गोबिन्द सिंह जी ने बैसाखी के दिन 14 अप्रैल, 1699 में आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की और 1700 ई में खालसा फौज के अभ्यास हेतु आनंदपुर साहिब में ही होले महल्ले का शुभारम्भ किया। यह युद्घाभ्यास इसलिए अनिवार्य था, ताकि ऐसी कौम तैयार हो सके जो धर्म परायण राज्य की स्थापना में बाधा बनी ताकतों तथा गरीब मजलूमों को सताने वालों को मुंहतोड़ जवाब दे सके।

गुरमत ज्ञान के सम्पादक सतविंदर सिंह फूलपुर लिखते हैं कि ‘‘बुराई को खत्म कर नेकी का राज्य स्थापित करने के लिए गुरु जी ने जहां मानवीय व आत्मिक विकास के लिए वाणी उच्चारित की और लिखी, वहीं युद्घाभ्यास के लिए ‘होले महल्ले’ का पर्व शुरू किया।’’

होली से एक दिन पहले से होला महल्ला कार्यक्रम प्रारम्भ होता है, जिसका समापन धुलण्डी के दिन होता है। इस तीन दिवसीय कार्यक्रम में गुरबाणी का पाठ, कीर्तन व कथा होती है तथा शस्त्रों के अभ्यास का शौर्यपूर्वक प्रदर्शन होता है।

पहला होला महल्ला गुरु जी ने आनंदपुर साहिब में 1700 ई में किला होलगढ़ में मनाया, जहां दो दलों में गुरिल्ला युद्ध का अभ्यास, तत्पश्चात् दीवान सजाकर गुरबाणी का पाठ व कीर्तन, देग तथा लंगर का वितरण तथा दीवान की समाप्ति पर विजेता दल को सिरोपा बख्शीश करके सम्मानित किया गया। यह शास्त्र और शस्त्र का, पीरी और मीरी का तथा भक्ति और शक्ति का एक आदर्श सम्मिश्रण था। गुरु साहिब खालसा फौज को दो दलों में बांटकर अभ्यास ‘गुरिल्ला’ युद्ध करवाते थे, जिसमें एक दल निश्चित स्थान पर काबिज हो जाता था और दूसरा दल उस स्थान पर कब्जा करने की कोशिश करता।

बदी पर नेकी की वास्तविक जीत हेतु कर्म की प्रधानता अनिवार्य थी। इस शक्ति का संचार गुरु गोबिन्द सिंह जी ने इस उद्घोष के साथ किया ‘चिड़ियो से मैं बाज लड़ाऊं, गीदड़ों से मैं शेर बनाऊं, सवा लाख से एक लड़ाऊं, तभी गोबिन्द सिंह नाम कहाऊं’’ और इस उद्घोष को तब सच कर दिखलाया, जब चमकौर की गढ़ी में 40 सिंहों ने विशाल मुगल फौज का मुकाबला वीरता से किया और विजय प्राप्त की।

चाहे आजादी की लड़ाई रही हो, भारत-चीन युद्घ रहा हो या भारत-पाक जंग, सिख रैजिमैंटों ने शौर्य, वीरता और विलक्षण युद्घ कौशल दिखलाया। हमने कारगिल की जंग जीती, जनरल नियाजी के घुटने टिकवाए, अफगानिस्तान के गजनी शहर से भारत की 2200 बहू-बेटियों को मुक्त कराया गया। इन सबके पीछे गुरु गोबिन्द सिंह जी द्वारा प्रारम्भ की गई होला महल्ला जैसी शौर्य परम्पराओं का महान योगदान है। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने शस्त्रों और शास्त्रों के सुन्दर सुमेल से एक ऐसी कौम तैयार की, जिन्होंने गुरु जी के आदेशानुसार कृपाण (अर्थात तलवार) मजलूम की रक्षार्थ एवं स्वाभिमान से जीने हेतु उठाई।

पिछले 300 से अधिक वर्षों से निरन्तर होली से एक दिन पहले से धुलण्डी के दिन तक आनंदपुर साहिब में दूर-दूर से संगतें पहुंचती हैं, जहां खालसा सेना युद्ध कौशल के शानदार हैरतंगेज शस्त्र करतबों का शानदार प्रदर्शन करती हैं तथा तख्त केशगढ़ साहिब में दीवान सजाए जाते हैं। वीर रस में कवि दरबार, जिनमें सरंबसदानी साहिबे कमाल गुरु गोबिन्द सिंह जी व उनके चार साहिबजादों के बलिदान, गुरु तेग बहादुर जी द्वारा तिलक व जनेऊ की रक्षा हेतु दिल्ली में लाल किले के सामने सीसगंज चांदनी चौक में दी गई शहादत का साका तथा सिखों के शौर्य, बलिदान तथा धर्म व राष्ट्र रक्षा में दिखाए गए अदम्य साहस की गौरव गाथा वीर रस में सराबोर काव्य में गाई जाती है, जो उपस्थित संगत में उत्साह भी भरती है और आंखें भी नम करती है।

गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ‘होला महल्ला’ को युद्घ की वीरतापूर्वक शौर्य कलाओं के अभ्यास का पावन पर्व बना दिया, जो मायूस दिलों में नई रूह का संचार करता है और अपने देश व धर्म हित में सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा देता है।

Seema Reporter
Author: Seema Reporter

ताजा खबरों के लिए एक क्लिक पर ज्वाइन करे व्हाट्सएप ग्रुप

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement
लाइव क्रिकेट स्कोर