जयपुर। बारिश अब केवल प्रेम, कविता या धरती की प्यास बुझाने का मौसम नहीं रही, बल्कि यह शहरी प्रशासन की पोल खोलने वाला आइना बन गई है। हर बरसात के साथ बहता है शहर का ढांचा, उजागर होती है नगर निगम की असंवेदनशीलता और ध्वस्त होती है सरकार की तथाकथित विकासपरक नीति। जयपुर की सड़कों पर फैले जलजमाव और टूटी सड़कों की वायरल होती तस्वीरें इस बात की गवाही देती हैं कि हमारे शहरों का विकास ‘गड्ढों’ में हो रहा है, जबकि सड़कों पर छलावा बिछा है।
बारिश से जयपुर की सड़कों के जो हालात हैं, अब सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक सुर्खियाँ बनी हुई है, यह केवल एक शहर की कहानी नहीं है। यह उस पूरे शहरी भारत की त्रासदी है, जहाँ गड्ढों में समा चुका है प्रशासन, और नागरिकों की हड्डियाँ सड़क पर। गांधी पथ, सिरसी रोड, वैशाली नगर और अन्य पॉश कॉलोनियों की हालत अगर यह है कि वहाँ पैदल चलना भी दुश्वार है, तो सोचिए उन उपेक्षित बस्तियों का क्या हाल होगा जो नगर निगम की नज़र में सिर्फ वोट बैंक हैं।
समय रहते सरकारें क्यों नहीं चेतती? यह सवाल अब हर मानसून में उठता है, लेकिन सरकारें इस सवाल को ‘मौसमी’ मानकर टाल देती हैं। सड़कें क्यों हर साल टूटती हैं? क्या ड्रेनेज प्लानिंग का कोई अस्तित्व नहीं है? क्यों नहीं होता पूर्व निरीक्षण? क्यों नहीं बनती ऐसी सड़कें जो बारिश झेल सकें? उत्तर साफ है—सरकारें मानसून को प्राकृतिक आपदा मान बैठी हैं और इससे लड़ने के लिए अपनी योजनाओं को ‘बजट प्रस्तावों’ और ‘आकस्मिक मरम्मत’ तक सीमित कर दिया है।
समस्या की जड़ में बस एक बात है—पूर्व नियोजन की घोर कमी और जवाबदेही का अभाव। जयपुर नगर निगम हो या राजस्थान शहरी विकास विभाग, सभी विभागों के पास साल दर साल रिपोर्ट्स मौजूद हैं कि किन क्षेत्रों में जलभराव होता है, सीवर लाइनें बार-बार क्यों फटती हैं, किन इलाकों में ड्रेनेज सिस्टम ही नहीं है। फिर भी कोई ठोस कार्य योजना क्यों नहीं? क्यों हर बार ठेकेदारों को ‘इमरजेंसी’ में टेंडर दिए जाते हैं? क्या यह केवल ‘बजट उपयोग’ और कमीशन आधारित विकास का नमूना नहीं?
जब गांधी पथ प्रयोगशाला बन जाए और सिरसी रोड पर लोग पर्चे लेकर खुद को बचाते हुए निकलें, तब समझिए कि ‘प्रगति’ केवल भाषणों में है। जब सड़कों पर पानी नहीं, कीचड़ और गड्ढे हों, तो बच्चे स्कूल नहीं, हॉस्पिटल पहुंचते हैं। जब सीवर लाइन फटती है, तो केवल गंदगी नहीं, नागरिकों का भरोसा बहता है। रिपोर्ट के मुताबिक जयपुर में हर साल लगभग 30% सड़कें बारिश में टूटती हैं। क्या यह सामान्य है? यह तो सीधे-सीधे ‘सिस्टम की सड़न’ का प्रमाण है। यह उस ‘विकास’ का पोस्टमार्टम है जिसकी नींव चुनावी नारों पर रखी गई थी।
हम जल संकट से जूझ रहे हैं। देश के कई हिस्सों में पीने का पानी मिलना कठिन होता जा रहा है। लेकिन दूसरी तरफ, जब आकाश से जल बरसता है, तो हम उसे सहेजने की बजाय सड़कों पर बहा देते हैं। ना रेन वॉटर हार्वेस्टिंग का इंतज़ाम, ना सड़कों के किनारे वाटर चैनलिंग सिस्टम। जब हर बूँद अमूल्य होनी चाहिए, तब वह बूँदें गड्ढों में समा जाती हैं। और फिर जब गर्मियों में टैंकर मंगवाने की नौबत आती है, तो वही सरकारें नागरिकों से संयम की अपील करती हैं।
जयपुर नगर निगम की लापरवाही को नजरंदाज़ करना जितना असंभव है, उतना ही शर्मनाक है प्रदेश सरकार की चुप्पी। जब एक के बाद एक सड़कें धँस रही हों, सीवर फट रहे हों, वाहन दुर्घटनाओं का खतरा बढ़ रहा हो—तब मुख्यमंत्री और मंत्री केवल सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं या आपदा के बाद ‘निरीक्षण’ के बहाने कुछ फोटो खिंचवा लेते हैं। यह सरकारों की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है, जब वह केवल चमकदार रिपोर्ट कार्ड और जमीनी सच्चाई के बीच का अंतर देखना भी नहीं चाहतीं। क्योंकि यह समस्या न तो नई है, न ही अप्रत्याशित। यह बस लापरवाही का स्थायी परिणाम है।
शहरों का विकास केवल मेट्रो ट्रेन या फ्लाईओवर से नहीं मापा जा सकता। असली विकास वह है जिसमें नागरिक को अपने ही घर के बाहर निकलने से डर न लगे। विकास वह है जहाँ सड़कें बारिश को झेल सकें और पानी को सहेजा जा सके। विकास वह है जो हर साल टूटे नहीं, और हर बार बहाने में न सहेजा जाए। शासन तंत्र को चाहिए कि वह मानसून को अब मौसम नहीं, चेतावनी माने। वक़्त आ गया है कि सरकारें बरसात को भी अपनी योजनाओं का हिस्सा बनाएं—न कि उसे ‘कुदरत की मार’ बताकर अपनी ज़िम्मेदारी से बच निकलें।
वरना एक दिन जनता सड़कों पर नहीं, सरकारों के खिलाफ बहते पानी में उतर जाएगी।
दीपक आज़ाद (स्वतंत्र पत्रकार व स्तंभकार)
