बहाई प्रशासन क्या है? जाने विस्तार से

यदि एक ओर नदी हो और दूसरी ओर खेती की जमीन, तो हम किस प्रकार उन अलग-अलग खेतों तक पानी लायेंगे जहाँ हम खेती करना चाहते हैं? हम पहले एक नहर खोदेंगे जो इतनी बड़ी होगी कि वह पुरे क्षेत्र की सिंचाई के लिये काफी पानी ला सके। फिर हम छोटी नहरें खोदेंगे जो बड़ी नहर से भूमि के विभिन्न भागों में पानी ले जायेगी । अन्त में इन नहरों से प्रत्येक खेत में पानी ले जाने के लिए हमें असंख्य छोटी-छोटी नालियों की आवश्यकता होगी। नहरों तथा नालियों की हमारी व्यवस्था के पूरा होने पर नदी सारे खेत की सिंचाई कर सकेगी। बहाई प्रशासन, जैसा कि शोगी अफेन्दी ने हमें बताया है, उन नहरों तथा नालियों के समान है "जिनके द्वारा.... धर्म की पवित्र आत्मा की दृष्टि संसार में फैले हुए बहाई समाजों पर होती है ।
पिछले युगों में पुरोहितों से यह आशा की जाती थी कि जीवन के जल स्त्रोतों को उस समय के लोगों तक लायेंगे । परन्तु उनकी शक्ति सीमित थी । वे केवल चुल्लू भर जल ला सकते थे और वह भी तक जब तक उनमें ऐसा करने की शक्ति तथा सामर्थ्य थी । परन्तु 'बहाउल्लाह' ने इस कार्य का भार कुछ व्यक्तियों पर नहीं छोड़ा । अस्तित्त्व के खेतों की सिंचाई के लिये उन्होंने नहरों के एक सुन्दर जाल की योजना बनाई है। यह योजना 'बहाउल्लाह' की विश्व व्यवस्था कहलाती है तथा बहाई प्रशासन (Baha'i Administration) इसका एक भाग है।
स्थापना और महत्त्व
प्रभु ने आज्ञा दी है कि प्रत्येक नगर में एक न्याय मंदिर की स्थापना की जाये जिसमें बहा की संख्या (9) के अनुसार परामर्शदाता एकत्र हों ... ये ऐसे लोग हों जो उस कृपानिधान के विश्वासपात्र हों और स्वयं को पृथ्वी पर रहने वाले समस्त लोगों की देख-भाल के लिए ईश्वर द्वारा नियुक्त संरक्षक समझते हों।"
"ईश्वर की शक्ति इन आध्यात्मिक सभाओं की सहायता करती है। अब्दुल-- बहा उनके रक्षक हैं| उनकी सुरक्षा की छत्रछाया इन पर बराबर बनी रहती है। इससे अधिक अनुकम्पा क्या हो सकती है ? ये आध्यात्मिक सभाएं प्रदीप्त दीप है और स्वर्गिक उधान हैं, जिससे पवित्रता की सुगन्ध चारों ओर फैलती है और सभी वस्तुओं पर ज्ञान का प्रकाश पड़ता है | इन आध्यात्मिक सभाओं से जीवन का संदेश प्रत्येक दिशा में फैलता है। ये वास्तविक रूप से सदा के लिए और सब परिस्थितियों में मानवता की प्रगति के सशक्त स्त्रोत हैं|
आध्यात्मिक सभा के पदाधिकारी
आध्यात्मिक सभा के सदस्य वे 9 बहाई होते हैं जो चुनाव के दिन प्रत्येक समाज में दूसरों से अधिक वोट प्राप्त करते हैं। चुनाव के पश्चात किसी सभा के सदस्यों को जो पहला आवश्यक कार्य करना होता है वह है आपस में एकत्रित होना तथा बैठक करना । इन चुने हुए नौ व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति ने शेष आठों से अधिक वोट प्राप्त किये हों वह अस्थायी अध्यक्ष होता है और जितना भी शीघ्र हो सके वह सदस्यों की पहली बैठक की व्यवस्था करें।
प्रत्येक सभा का अवश्य ही एक सभापति, एक उप-सभापति, एक सचिव तथा कोषाध्यक्ष हो । यह आवश्यक है तथा सभा के कार्य को बहुत सुगम बनाता है।
सभापति का काम बैठकों का संचालन करना तथा सभा को निर्णय पर पहुँचने में सहायता देना होता है। यदि सदस्य केवल बातचीत करने तथा विसर्जित होने के लिए ही एकत्रित हों तो उनका सभा में होने का कोई लाभ नहीं। सभापति विचार के लिये उनके सामने प्रस्तुत किये गए प्रत्येक विषय के बारे में सभी सदस्यों की राय पूछता है, फिर उनसे उस विषय पर वोट देने को कहता है तथा इस बात का निश्चय करता है कि सभा निपटाए जाने वाले भिन्न-भिन मामलों में किसी निर्णय पर पहुँचे । 'विचार विमर्श' के अध्ययन में इस बारे में हम और अधिक पढ़ेंगे ।
उप-सभापति उस समय सभा की बैठक का संचालन करता है जब सभापति रोग आदि कारणों से उपस्थित न हो सके।
सचिव वह होता है जो सभा के सभी कार्यों का रिकार्ड रखता है, वे सभी काम जो करने हैं और वे सभी काम जो किये जा चुके हैं। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों, अन्य आध्यात्मिक सभाओं तथा राष्ट्रीय आध्यात्मिक सभा को भेजे जाने वाले सभी पत्र सचिव के माध्यम से ही भेजे जाते हैं । स्थानीय आध्यात्मिक सभा शेष बहाई जगत के साथ सम्पर्क में होती है।
कोषाध्यक्ष सभा के कोष का इंचार्ज होता है । वह कोष में दान देने वालों को रसीदें देता है और इस रकम से आध्यात्मिक सभा की प्रत्येक बैठक में निश्चित खर्च के लिये पैसे देता है।
दूसरी ओर हमें यह भी अवश्य याद रखना चाहिए कि सभा के पदाधिकारियों को समाज में कोई विशेष दर्जा प्राप्त नहीं होता| उदाहरण के लिए अध्यक्ष समाज का नेता या सबसे ज्यादा सम्मानित तथा आदरणीय व्यक्ति नहीं होता। आध्यात्मिक सभा से बाहर उसका पद वही होता है जो समाज के किसी अन्य सदस्य का और ज्यों ही सभा की बैठक समाप्त होती है किसी अन्य बहाई की तुलना में उसे समाज में कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होता।
परस्पर परामर्श
"सभा के सदस्यों के लिए पहली शर्त आपस में निर्बध प्रेम और एकता है। उन्हें आपसी दुराव से पूरी तरह मुक्त होना चाहिए और स्वयं में ईश्वरीय एकता का अनुभव करना चाहिए क्योंकि वे एक ही सागर की लहरें हैं, एक ही नदी की बूदें, एक बाग के वृक्ष और एक ही उद्यान के पुष्प हैं| यदि सभागार में वैचारिक समता और पूर्ण एकता का अभाव हो, तो उस सभा को भंग कर दिया जाए। दूसरी शर्त - एक दूसरे के साथ आते हुए अपने चेहरों को उस उच्च साम्राज्य की ओर रखना चाहिए और उस महिमामंडित साम्राज्य से सहायता की प्रार्थना करनी चाहिए। उसके बाद उन्हें पूरी तन्मयता, शिष्टता, मर्यादा तथा ध्यान के साथ अपने विचारों को व्यक्त करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए । उन्हें सभी मामलों में सच्चाई की तह तक पहचना चाहिए तथा कभी भी अपने ही विचार पर जोर डालने का हठ नहीं करना चाहिए क्योकि हठधर्मिता से अन्ततः विद्वेष और वैमनस्य होगा तथा सच्चाई कभी उजागर नहीं हो सकेगी|
सभा के सम्मानित सदस्य अपने विचारों को पूरी स्वतंत्रता के साथ जरूर व्यक्त करें और किसी को भी किसी दूसरे सदस्य के विचारों को नीचा दिखाने की अनुमति देना बुद्धिमानी नहीं होगी। हां, वह प्रकारांतर से सच्चाई को सामने ला सकता है और फिर भी यदि वैचारिक मतभेद कायम हों, तो बहुमत को मानते हुए, सभी को उसका आदर करते हुए, बहुमत के समक्ष झुक जाना चाहिए। और एक बार फिर इस बात की अनुमति नहीं दी जाती कि सभा के भीतर या बाहर कोई सम्मानित सदस्य पहले लिए गए किसी निर्णय का विरोध करें या उसकी आलोचना करें, चाहे वह निर्णय सही न भी रहा हो, क्योंकि इस प्रकार की आलोचना किसी निर्णय के कार्यान्वयन में बाधक सिद्ध होगी। संक्षेप में, आपसी ताल-मेल, प्रेम और उद्देश्य की पवित्रता के साथ जो भी प्रबंध किया जाता है, उसका नतीजा प्रकाश के रूप में सामने आएगा। यदि रचमात्र भी विद्वेष हो, तो नतीजा अंधकारमय होगा और उस पर अंधकार की परत और गहरी हो जाएगी । ऐसा समझ लेने पर ही इसे ईश्वर की सभा की संज्ञा दी जा सकती है अन्यथा यह ऐसी शिथिलता और अलगाव को जन्म देगी जो बुराई का स्वाभाविक परिणाम होता है।
"लेकिन सभा का बहुमत इससे पहले कि किसी निर्णय पर पहुंचे, प्रत्येक सदस्य का यह मात्र अधिकार ही नहीं, वरन् उनके लिये यह पवित्र अनिवार्यता भी है कि वह अपने सहयोगी सदस्यों की नाराजगी अथवा उनसे अलग-थलग होने की परवाह किए बिना पूर्ण स्वतंत्रता और मुक्त रूप से अपने विचार प्रकट करें। स्पष्ट और मुक्त विचार विमर्श के इस महत्वपूर्ण प्रशासनिक सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ही धर्म-संरक्षक ने अन्य सदस्यों से आपको अपनी राय या सलाह जाहिर करने के वारे में कहने की पद्धति को त्यागने की सलाह दी है| सभा के समक्ष अपने विचार रखने का यह अपरोक्ष रवैया न सिर्फ दुराव-छिपाव का माहौल पैदा करता है, बल्कि कई गुत्थियां और भ्रांतियां भी उत्पन्न करता है, जो ईश्वरीय कार्य की भावना के प्रतिकूल हैं| सभा के सदस्यों में अपने विचार प्रकट करने का पूरा साहस होना चाहिए लेकिन साथ ही उनमें इस बात का साहस भी हो कि वह अपने सहयोगी सदस्यों द्वारा बहुमत से किए गए किसी फैसले को बिना शर्त और पूरे हृदय से मानने की घोषणा करें।
किसी सभा के सदस्यों के द्वारा प्रकट किए गए भिन्न-भिन्न विचार एक स्वादिष्ट व्यंजन के विभिन्न तत्वों की भाँति होते है| जब हम एक अच्छा व्यंजन तैयार करना चाहते हैं तो हम कई वस्तओं को आपस में मिलाते हैं और इसे तब तक उबालते हैं जब तक कि वह अच्छी तरह पक नहीं जाता। यह केवल तभी स्वादिष्ट बन सकता है जब सभी तत्व भली-भाँति मिलाये जायें क्योंकि प्रत्येक भाग अपना स्वाद व्यंजन को प्रदान करता है । परन्तु यदि हमें उन तत्वों का स्वाद अलग-अलग चखना पड़े तो वह कभी भी इतना अच्छा न होगा | इसी प्रकार सभा में एकत्रित बहाईयों द्वारा व्यक्त की गई विभिन्न रायें अन्तिम निर्णय में कुछ न कुछ अंशदान देती हैं। परन्तु सभा का निर्णय किसी एक व्यक्ति की राय नहीं होता यह एक सभा का निर्णय है और सभी सदस्यों के विचारों से प्राप्त किया गया परिणाम है।
हमें सावधान रहना चाहिए कि कहीं छोटे-छोटे निजी मामले हमारे हृदय में घर न कर लें और विचार विमर्श के समय वे हमारे विचारों को प्रभावित न कर बैठे। उदाहरण के लिए यदि मेरे किसी परिचित ने, जब मैंने उसे अपने लिए कुछ काम करने को कहा, मुझे समय नहीं दिया तो मुझे पूरी सावधानी बरतनी चाहिए कि जब वह व्यक्ति सभा में कोई अच्छे सुझाव दे तो उसके प्रति वे विचार पूर्व द्वेष से प्रभावित न हों। यहाँ पर भी मुझे अवश्य ही ईश्वरावतार बहाउल्लाह की उपस्थिति को याद रखना चाहिए और किसी बात को प्रभु की सेवा के मार्ग में आड़े नहीं आने देना चाहिए । जब बहाई सभा में एकत्रित हों तो वे “एक ही हाथ की उँगलियों" तथा "एक ही सागर की बंदों" के समान काम करें।
आध्यात्मिक सभा के सदस्यों के अनिवार्य दायित्व
"उनके लिए यह आवश्यक है कि वे शैतानों और शत्रुओं के हमले और आक्रोश से ईश्वरी कार्य के मंदिर की रक्षा के प्रति सदैव सजगता, सावधानी और निगरानी बरतें।"
''वे सदैव मित्रों में सदभाव और एकता को बढावा दें, अविश्वास के अवशेषों को समाप्त कर दें और प्रत्येक हृदय को विद्वेष की भावना से मुक्त करने का प्रयास करें तथा उसके स्थान पर ईश्वरीय कार्य की सेवा के प्रति सक्रिय और हार्दिक सहयोग का माहौल बनाएं।”
"उन्हें गरीबों, बीमारों, अपंगों, अनाथों तथा विधवाओं की, बिना जात-पात,रंग-रूप आदि के भेदभाव के सदैव सहायता के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।”
"उन्हें युवकों के आध्यात्मिक जागरण और बच्चों की शिक्षा के लिए अपनी समस्त शक्तियों और भौतिक साधनों का इस्तेमाल करना चाहिए । जब भी सम्भव हो, बहाई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करनी चाहिए तथा उनके विकास और वहाँ के कार्यों की देख-रेख करते रहना चाहिए।”
"उन्हें मित्रों की नियमित बैठकें, सहभोज और सालाना जलसे के अतिरिक्त विशेषरूप से अनेक ऐसे समारोहों के आयोजनों का भी बीड़ा उठाना चाहिए जिनसे समुदाय के लोगों के सामाजिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक हितों को बढ़ावा मिले”
"ये कार्य प्रत्येक आध्यात्मिक सभा के सदस्यों के अनिवार्य दायित्वों में सर्वोपरि हैं।”
- उपस्थिति और पंजीकरण
"यह अत्यन्त स्पष्ट है कि जब तक कोई सदस्य अपनी स्थानीय सभा की बैठकों में नियमित रूप से हिस्सा नहीं लेता, तब तक वह समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में अपने दायित्वों और कर्तव्यों को पूरा नहीं कर सकता । किसी स्थानीय आध्यात्मिक सभा की सदस्यता का यह अर्थ होता है कि सदस्य में स्थानीय बहाई गतिविधियों से निकट सम्पर्क रखने की क्षमता हो और वह इसे अपने लिए अनिवार्य माने तथा सभा की बैठकों में नियमित रूप से भाग ले।"