फिर सुर्ख हुई गहलोत और सचिन के बीच गहमागहमी

-राजस्थान कांग्रेस में राजनीतिक पारा चरम पर
-गहलोत ने कहा अभी रगड़ाई नहीं हुई, निकम्मा, नाकारा
-सचिन बोले, सच को परेशान किया जा सकता है, पर पराजित नहीं
 
ashok gehlot and sachin pilot

रिपोर्टर - पूनम चन्द्रा

जयपुर। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी पं.जवाहर लाल नेहरु के अंग्रेजियत हाव-भाव और बोल चाल को खासा तरजीह दी थी। इसलिए पं. नेहरु भारत सरकार के शीर्ष पद हासिल कर पाए। शायद मौजूदा गांधी परिवार भी अंग्रेजी को अधिक महत्व देता है। तभी राजस्थान के पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ खुला मोर्चा खोलने के बाद भी अनुशासनात्मक कार्यवाही संभव नहीं हो पाई। उलट, कांग्रेस हाईकमान ने उन राजस्थान कांग्रेस प्रभारियों को साइड लाइन कर दिया जो सचिन के खिलाफ बोले। इसमें एक प्रमुख नाम अवनीश पांडे का भी शामिल है।

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सचिन पायलट में अशोक गहलोत के मुकाबले राजनीतिक समझ कम हो, लेकिन वे कांग्रेस आलाकमान को अपनी अंग्रेजियत के बूते पर अपने पक्ष में करने की काबिलियत रखते हैं। इसके अलावा सचिन राजस्थान में कांग्रेस की सत्ता में वापसी का सेहरा भी अपने माथे बांधे हुए हैं। खासतौर से युवाओं में खासा लोकप्रियता हासिल किए हुए हैं। शायद इससे ही अधिक फर्क पड़ रहा है कि गहलोत-सचिन के बीच राजनीतिक टकराहट कम  होने की बजाए बढ़ती ही जा रही है। गहलोत ने कहा अभी रगड़ाई नहीं हुई, निकम्मा, नाकारा है। सचिन बोले, सच को परेशान किया जा सकता है, पर पराजित नहीं। अब सूरतेहाल यह है कि कनार्टक चुनाव में स्टार प्रचारक लिस्ट में सचिन पायलट गायब हो गए है। शायद दूसरी लिस्ट का इंतजार है सचिन को।

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कांग्रेस हाईकमान की आदेश की अनदेखी करने वाले अशोक गहलोत राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं। तभी तो एक के बाद एक सत्ता पर हमले को झेल गए और बीच का रास्ता निकालने में कामयाब भी हो गए। अब चूंकि एसेम्बली इलेक्शन माथे पर हैं। गहलोत- सचिन के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर अदावत बदस्तूर बनी  हुई है, जबकि  कांग्रेस सरकार के आखिर साल में सचिन को पक्का भरोसा था कि वे राजस्थान के मुख्यमंत्री बन जाएंगे, लेकिन गहलोत ने फिर अपनी जादूगरी दिखा दी। अपने पॉवर को दिखाकर कांग्रेस हाईकमान के फैसले को बेनतीजा कर दिया। गहलोत ने एआईसीसी के अध्यक्ष बनने के बजाए राजस्थान का मुख्यमंत्री बने रहना ही मुनासिब समझा। इसके भी कई राजनीतिक मायने हैं, जो आगामी चुनाव में शायद देखने को मिलेंगे।   इसके बाद  गहलोत कहीं न कहीं कांग्रेस आलाकमान की किरकिरी बन गए।  गहलोत ने हर मोर्चे पर साबित कर दिया है कि जब तक वे मुख्यमंत्री हैं। तब तक राजस्थान में कांग्रेस है। गहलोत खुले  मंच पर अक्सर बोलते हैं कि उन्हें इंग्लिश नहीं आती, लेकिन वे इस भाषा के खिलाफ कतई नहीं है।

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विदेश में पढ़े और कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे मरहूम राजेश पायलट के बेटे सचिन अपनी अंग्रेजी से राजनीतिक उड़ान भर रहे हैं। वहीं अशोक गहलोत 36 कौमों के नेता होने का मान सम्मान पा रहे हैं। हमारी हिन्दुस्तानी संस्कृति भी बुजुर्गों के अनुभवों को महत्व देती है ताकि नई व युवा पीढ़ी की बुनियाद मजबूत बनें और देश तरक्की करे। राजनीति में युवाओं को आगे लाने में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की ठोस पहल व अहम भूमिका भी थी। इससे युवाओं को राजनीति में बड़े पद भी मिलने लगे, लेकिन कई दफा अति महत्वकांक्षा राजनीति में उबाल ला देती है। यही कारण है कि जैसे ही राजस्थान में कांग्रेस सत्ता में आईं, गहलोत व सचिन के बीच राजनीतिक फासले बढ़ते गए जो सरकार के पूरे पांच साल के आखिरी पड़ाव में बदस्तूर बने हुए हैं, लेकिन पिछले पांच साल में सचिन ने अपने मुख्यमंत्री बनने की जिद नहीं छोड़ी। इसके लिए बगावती तेवर भी दिखाए, भाजपा की वरिष्ठ नेता वसुंधरा के भ्रष्टाचार की जांच नहीं कराए जाने को लेकर अपनी सरकार को आड़ों हाथ लेते हुए अनशन भी किया, लेकिन सचिन अनुशासनात्मक कार्यवाही से फिर बच निकले।

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अंग्रेजी मीडिया ने भी सचिन पायलट को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। क्यूं न हो सचिन के कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष रहते साल 2018 का विधानसभा चुनाव जीते थे। इस जीत  में सचिन की अहम भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, लेकिन बरसों से राजस्थान में कांग्रेस को सींचने वाले कद्दावर नेता अशोक गहलोत की कड़ी मेहनत को आसानी से दरकिनार भी नहीं किया जा सकता है। हालांकि  कांग्रेस   ने सचिन पायलट को कम उम्री में एक नाम दिया और पहचान दिलाई।

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खैर, यहां राजस्थान में कांग्रेस की जीत का सेहरा सचिन पायलट के माथे पर किसने बांधा यह सोचने का विषय है, जबकि भाजपा ने भी कांग्रेस से कड़े मुकाबले में अच्छी सीटें हासिल की थीं। यह बात साफ है कि राजस्थान में भाजपा की हार का खास कारण वसुंधरा के खिलाफ जनाधार रहा था। यह सर्वविदित है कि कांग्रेस का परिवारवाद हर बड़े फैसले के आड़े आ जाता है।

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अशोक गहलोत साफ कह चुके हैं कि वे यहां आलू, बैंगन बेचने नहीं आए हैं। वे राजनीति करने आए हैं। यही कारण है कि वे अपनी राजनीतिक पकड़ व अनुभव से लोहा मनवाते आए हैं। बहरहाल यह तो तय हो गया है कि अशोक गहलोत अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी किसी भी हद तक छोड़ना नहीं चाहते हैं। उधर, कांग्रेस का केन्द्रीय हाईकमान भी पेसोपेश में है कि आखिर राजस्थान का नेतृत्व बदलाव कैसे किया जाए। कांग्रेस हाईकमान की नजर साल 2023 के विधानसभा चुनाव पर है। कांग्रेस हाईकमान समेत उनके प्रमुख सलाहकार मानते हैं कि नेतृत्व बदलाव से कांग्रेस को राजस्थान में अच्छी सीटें मिल पाए और वो फिर से राजस्थान में अपना कब्जा जमा पाए। यही कारण है कि वे सचिन पायलट की भूमिका को खास महत्व देते दिखते हैं।

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सचिन को श्रीकृष्ण जैसे सारथी की जरूरत
इसमें शुबहा नहीं कि सचिन पायलट अवाम में काफी लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं, लेकिन उन्हें योग्यता के मद्देनजर मुख्य  पद नहीं मिल पाया, और नाखुशी के चलते महज डेढ़ साल में  उन्होंने अपना उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। राहुल गांधी व प्रियंका गांधी के करीबी माने जाने वाले सचिन हर तरह के दांवपेच लगा चुके हैं, लेकिन वे अशोक गहलोत को शिकस्त नहीं दे पाए। कांग्रेस हाईकमान भी आखिरी साल में सचिन को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाने की मंशा जाहिर कर चुका था, लेकिन गहलोत की पॉवर के आगे बात नहीं बन पाई। यह सही है कि राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत से सचिन पायलट का राजनीति कद बढ़ गया था। इसके लिए वे मुख्यमंत्री  पद के लिए खुद को काफी हकदार भी मानते रहे। अब कांग्रेस में सचिन पायलट को महाभारत के अर्जुन की तरह अपनों पर राजनीतिक बाण चलाने पड़ रहे हैं। ऐसे हालात में उन्हें भगवान श्रीकृष्ण जैसे सारथी और उनके उपदेशों की खास जरूरत है ताकि वे अपने राजनीतिक धर्म को शिद्दत से निभा सकें।

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