पद्मश्री स्वर्गीय श्रीलाल जोशी ने विकसित की फड चित्रकला

 
पन्नालाल मेघवाल वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार

पन्नालाल मेघवाल लेखक एवं पत्रकार

राजस्थान में फड चित्रकला शैली को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फड़ चित्रकार स्वर्गीय श्रीलाल जोशी ने विकसित किया। फड चित्रकला में स्वर्गीय श्री लाल जोशी का अभूतपूर्व योगदान रहा। उन्हें पद्मश्री, राष्ट्रपति पुरस्कार एवं शिल्प गुरु सम्मान से नवाजा गया। राजमहलों की दीवारों पर आधृत इस कला को रोचक बनाकर कपडे के केनवास पर  सुर-ताल-लय में स्वरबद्ध करने का श्रेय स्वर्गीय श्री लाल जोशी को है।

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फड चित्रकला को समृद्ध करने में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कल्याण जोशी, गोपाल जोशी, दुर्गालाल जोशी एवं राज्य पुरस्कार प्राप्त मनोज जोशी का अद्वितीय योगदान है। कल्याण जोशी की ग्वाटेमाला सेंट्रल कनाडा में चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित हुई।

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डॉ. विनोद जोशी पहले फड चित्रकार हैं, जिन्होंने पाबूजी काव्य पर पीएचडी कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। डॉ. विनोद जोशी एवं नीमा जोशी के भगवान बुद्ध, जगन्नाथ यात्रा, श्रीनाथजी के 365 स्वरूप, गणेश स्तुति आदि अनेक चित्र मंगलम आर्ट्स में संग्रहीत हैं। डॉ. विनोद जोशी का पाबूजी की फड़ पर कैटलॉग दूरदर्शन पर सांस्कृतिक पत्रिका सुरभि में प्रसारित हुआ। रामगोपाल जोशी की एक देवनारायण की फड भारतीय ललित कला में संग्रहीत है। सुबोध जोशी के फड चित्र कई पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। मनोज जोशी ने कई नए फड कलाकार तैयार किए हैं।

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मेवाडी में कपडे के टुकडे पर चित्रण इबारत को फड कहते है जो सँस्कृति के पट (वस्त्र) का ही अपभ्रंश है। पड़ या फड का तात्पर्य पढ़ने या बाँचने से भी लगाया गया है। सर्वाधिक फडें देवी-देवताओं में पाबूजी राठौड, देवनारायण, दुर्गा, गोगाजी, दशामाता, सूरजनारायण, पथवारी, डाडा बावजी, महादेवजी, रामदेवरा, भँवरा बावजी, शीतला माता आदि मुख्य हैं। ये फडें जीवनधर्मी, आदर्शमय एवं अनुष्ठानिक होते हुए अपनी मूल पीठिका में लोक मंगल की धार्मिक भावना लिए होती हैं। ये देवी- देवता स्वधर्मपालन और जन कल्याण में लगे लोगों की आस्था और विश्वास में अभिवृद्धि करती हैं।

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इसके अलावा महिलाओं के पूज्य त्यौहारों की पारम्परिक कथाएँ जैसे- नागपंचमी, करवा चौथ, गणगौर, श्रवण कुमार आदि का भी फडों में चित्रांकन होता है। गीत गोविन्द, महाभारत, रामायण, कुमार सम्भव, पंच कल्याण आदि से लेकर ऐतिहासिक गाथाओं, जैसे- पृथ्वीराज चैहान, हाडी रानी, पद्मिनी, जौहर, महाराणा प्रताप, अमरसिंह राठौड, हल्दी घाटी, संयोगिता हरण, चन्द वरदाई, पृथ्वीराज रासो, गोरा-बादल, मूमल, ढोला मारू आदि विषयक गाथाओं पर भी फड़ों में सुन्दर चित्रांकन किया जा चुका है।

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राजस्थान की लोक सँस्कृति में पड या फड़ बाँचने या पढ़ने की विशेष परम्परा थी। सामूहिक फड-वाचन किसी खुली जगह या चौपाल में पूर्ण श्रद्धा व आस्था के साथ होता था। लगभग तीस फुट लम्बी और पाँच फुट चौडी फड बाँसों के सहारे खुली जगह या चौपाल में तान दी जाती थी। फड़ में चित्रित कथा को सुर-ताल तथा लय के साथ गायन के रूप में पढा़ जाता था। इसके सुरीले गायक को भोपा कहते थे, जो कि गाते समय छडी की सहायता से फड़ पर चित्रित दृश्यों को समझाता था।

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प्राचीनकाल में भोपे गाँव-गाँव में जाकर वीरों की शौर्य गाथा, विरूदावली को गीतों में रचकर सुनाते थे। फड़ में उन्हीं विरूदावलियो, कथाओं को चित्रित कर इन्हें दृश्य-श्रव्य बना दिया। भोपे के साथ  भोपण तथा उसके अन्य साथी भी होते थे। यदि फड़ रात में बाॅंची जाती थी तो भोपण हाथ में एक डण्डे पर लटकता एक दीपक लिए रहती थी, जिसके उजाले में फड़ चित्र चमकते थे। इस प्रकार गायी गई घटना तथा चित्र में ऐसा सामंजस्य होता था कि श्रोता पर गइराई तक असर पडता था।

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भोपे के अन्य साथी ढोलक, मंजीरा, अलगोजा, थाली, चींपिया, जंतर, रावण हात्था आदि लोक वाद्य बजाते थे। मुख्य गायक भोपा लाल रंग की कोर लगी अंगरखी धोती और साफा बाँधकर अपने उल्लासपूर्ण स्वरों में घटना के अनुरूप उतार-चढ़ाव का क्रम साधे रहता था। इस प्रकार कथा-गाथा को सुर-ताल-लय में बाँधते भोपा-भोपण और श्रद्धालु मंत्रमुग्ध हो फड़ का देखते सुनते थे।

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पन्नालाल मेघवाल
वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार। 
   

उल्लेखनीय है कि सुप्रसिद्ध लोक नायक पाबूजी का बोध चिन्ह भाला है जबकि देव नारायण का बोध चिन्ह सर्प है। सर्वाधिक लोकप्रिय पाबूजी की फड़ है किन्तु देवनारायण जी की सवारी फड़ सबसे लम्बी होती थी। राजस्थान की फड चित्रकारी पूर्ण श्रद्धा भक्ति व आस्था के साथ व्यावहारिक रूप में उपयोग में ली जाती थी। देवताओं के सो जाने की मान्यता से चातुर्मास में फड-चित्रण नहीं होता था। पुनः देव उठनी, एकादशी से फड चित्रण कार्य आरम्भ होता था।

फड़ चित्रण में एक ओर जहाँ फड शैली की परम्परागत सीमाएँ कलाकार को बाँधकर रखती थीं वहीं दूसरी ओर रंगों के प्रयोग की भी अपनी सीमाएँ थीं। प्रायः लाल, पीला, हरा, काला, आसमानी, भूरा, एवं त्वचा का रंग भी नारंगी जैसा प्रयुक्त होता है। शौर्य गाथा चित्रण में लाल रंग प्रधान होता है। प्राचीनकाल में प्राकृतिक या पत्थर के रंगों का प्रयोग होता था जो वनस्पतियों से प्राप्त होते थे।

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विभिन्न प्रकार के रंग विशेष पत्थरों को पीसकर उनमें गोंद या सरेस मिलाकर तैयार होते थे। जंगार से हरा, हरताल से पीला, हींगलू से लाल और हरमच से भूरा रंग बनाते थे। पत्थरों को पीस कर उनमें गोंद मिले रंग जहाँ चित्रों को विशेष रंग देते थे। गोंद या सरेस मिलने से रंगों का पक्कापन बढ़ता था। यह बरसों तक फीके नहीं पडते तथा इतने चककीले होते हुए भी आँखों को चुभते नहीं थे।

फड चित्र शैली के चित्रों में  आकृति थोडी मोटी और गोल, आँखें  बडी-बडी तथा नाक अन्य शैलियों की अपेक्षा छोटी व मोटी होती है। राजस्थान फड शैली के जन्मदाता श्रीलाल जोशी लोक कला क्षेत्र के एक मात्र ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने वंशानुगत फड चित्रांकन में रंग संयोजन का आधार पारम्परिक रखा किन्तु फोक आर्ट और फाईन-आर्ट को आत्मसात किया।

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