हिंदू-मुस्लिम संस्कृति का संवाहक पश्चिमी राजस्थान का मांगणियार गायन

 
rajasthani song

पन्नालाल मेघवाल वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार।

पश्चिमी राजस्थान का मांगणियार गायन हिंदू-मुस्लिम संस्कृति का संवाहक  रहा है। मांगणियार पीढ़ी दर पीढ़ी लोकगीत, संगीत  एवं गायन परम्परा का निर्वाह करते आ रहे हैं। मांगणियार मुस्लिम मूलत:सिन्ध प्रान्त के निवासी हैं। वर्तमान में मांगणियार बाड़मेर, जैसलमेर एवं पश्चिमी राजस्थान में निवास करते हैं। सदियों से मांगणियारों के जजमान हिंदू रहे हैं। जजमान के घर आने जाने पर इन्हें पूरा सम्मान मिलता था। जजमानों के घरों में बच्चा पैदा हो, विवाह, तीज, त्यौहार या कोई भी मांगलिक कार्य हो तो मांगणियार उससे संबंधित गीत गाकर जजमान से कई प्रकार के ईनाम प्राप्त करते थे, जिनमें स्वर्ण जेवर, नकदी, मकान, जमीन, ऊंट, कपड़े आदि प्रमुख हैं।

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हिंदू उच्च जाति के लोग एवं सिंधी इनके जजमान रहें हैं। इनके गीतों की रचनाएं सदियों पुरानी हैं। इन्हें विविध आयोजनों के हजारों गीतों की रचना करने एवं संगीत से सजाने की कला  विरासत में मिली हुई है। इन्हें सैकड़ों गीत कंठस्थ याद रहते हैं। कमायचा इनका पारंपरिक वाद्य है। कमायचा तानसेन का बनाया हुआ वाद्य माना जाता है। कमायचा लकड़ी का बना होता है, जिसकी तवली चौबीस अंगुल की होती है। नाल दस अंगुल की होती है। सिरे को मोलिया कहा जाता है। स्वर के लिए मुख्यत: तीन मोटे तार होते हैं, जिन्हें मोरणा कहा जाता हैं। साथ में ग्यारह पतले तार होते हैं, जिन्हें मोरनी कहा जाता है। गज लकडी का बना होता है, जिसमें घोडे की पूछं के बाल होते हैं। गज को कमायचा के मोरणी व मोरणा पर चलाते ही सुमधुर स्वरों की गूंज सुनाई देती है जिससे कलाकार की सधी हुई उंगलियों से सुर निकालते हैं।

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मांगणियार पारंपरिक रूप से अपने बच्चों को संगीत शिक्षा देते हैं, विभिन्न साजों लोक वाद्यों का चलन कालांतर में होता रहा जैसे- अलगोजा, खड़ताल, मटका आदि वाद्य धीरे धीरे जुड़ते गए। बालक अपनी रुचि के अनुसार विद्या सीखते हैं। मांगणियार गायन शैली में मुख्यत: छ: राग एवं छत्तीस रागनियां होती हैं। जिनके आधार पर ही लोक गीत, लोक संगीत की रचना की जाती है। मुख्यतः छ: राग- प्रभाती, गूढ़ मल्हार, मारु, कल्याण, व्यागडो एवं खमाज राग होते हैं।

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प्रभाती प्रातःकालीन वेला में सूर्योदय के समय गाया जाने वाला राग है जिसमें रामचंद्रजी के भजन, श्रीकृष्ण, रैदास, कबीर, मीरा, तुलसीदास आदि महापुरुषों की रचनाएं गायी जाती हैं। इसके अलावा भजन, भक्ति गीत, कीर्तन आदि भी गाये जाते हैं। गूढ़ मल्हार प्रातः 10 से दोपहर 12 बजे के बीच दिन में गाया जाने वाला राग है। जब कोई राजा महाराजा या जजमान अपनी दैनंदिनी के लिए आता जाता है अथवा जजमान व्यापार आदि के लिए जाने वाले हो तो गूढ मल्हार राग गाया जाता है।

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मारु राग दोपहर 2 बजे से 4 बजे तक गाया जाने वाला राग है। कल्याण राग शाम को 8 बजे से गाया जाता है इसे शाम कल्याण राग भी कहा जाता है। इस राग के विभिन्न गीतों की प्रस्तुतियां मनभावन ढंग से गाई जाती हैं, जो माहौल को खुशनुमा कर देती हैं। मेहमानों के आने, बैठने, खाने, पीने, आमोद, प्रमोद, हंसी एवं मजाक के समय कल्याण राग के गीत गाए जाते हैं।  इस समय गाए जाने वाले गीतों से दिन भर की थकान दूर हो जाती है एवं मन शांत व उल्लास से भर जाता है। रात रात भर बैठ कर जजमान इनके गीतों से प्रसन्न होते हैं, और इनाम इकराम से नवाजते हैं।

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व्यागडो राग के गीतों का प्रचलन रात्रि 9 बजे से देर रात्रि तक होता है, जब हंसी खुशी का माहौल चरम तक पहुंचता है। खाने पीने का दौर चलता रहता है, तब इस राग में गीत गाने से जजमान अत्यंत प्रसन्न होते हैं। खमाज राग को शुभ राग के रूप में जाना जाता है। कहीं भी शुभ कार्य का माहोल हो तो इस राग का गीत गाया जाता है। इसके अलावा सारंग राग भी प्रसिद्ध है। यह राग आषाढ़ में वर्षा ऋतु के समय गाया जाता है। गर्मी के मौसम से राहत दिलाने के समय यह राग गाया जाता है। इधर मोर, पपीहा, कोयल, चकोर उछल कूद करते हैं।  मन उमंग से भरा होता है, ऐसे समय में इस राग के गीतों की रचनाएं गाई जाती हैं।

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पन्नालाल मेघवाल
वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार।         

इसी तरह 6 प्रमुख रागों के साथ ही 36 रागनियां होती हैं जिनमें प्रमुख रूप से मारू, पहाड़ी, शुभ, काफी, सोरठ, धानी, तोड़ी, भैरवी, खयामाती, सोमेरी आदि प्रसिद्ध हैं। इन रागनियों में हजारों गीतों की रचनाएं हुई हैं। जिसका मांगणियारों के पास अथाह भंडार है। मांगणियार समुदाय के विभिन्न रीति-रिवाजों, त्यौहारों, जन्म, विवाह आदि पर अपनी विशिष्ट परंपराएं हैं। इनमें जन्म एवं वैवाहिक परंपराएं प्रमुख है।
बच्चे के घर जन्म पर हालरिया गीत गाया जाता है। त्यौहारों एवं अन्य मांगलिक अवसरों पर क्रमशः मेहंदी, कंकू, श्रृंगार, श्रावणी तीज, फाग, होली, बसंत, शरद, ग्रीष्म एवं बरसात आदि ऋतुओं पर भी अलग अलग तरह के गीत गाने की परंपरा है।

मांगणियारों में पारंपरिक वैवाहिक गीत गाने की समृद्ध परंपरा है। विवाह के अवसर पर जब दूल्हे को पाठ पर बिठाया जाता है। शुभ मुहूर्त में धागा बांधा जाता है, तब बधावा  गाया जाता है, जिसे सावा गीत भी कहते हैं। जब बारात दूल्हे के घर से रवाना होती है, तो अंतरियो गीत गाया जाता है, जिसमें गुलाब के फूलों की सुगंध जैसा महकने का वर्णन होता है। उसके बाद खमाजे की दुआ देनी पड़ती है। अर्थात दुल्हन को लेने बारात आ रही है, यह एक तरह से दुल्हन के घर पर सूचना देने जैसा है। ससुराल पहुंचते ही गोडलिया गीत की सुमधुर स्वर लहरियां गुंजायमान होने लगती हैं। चारों और खुशियां की बहारें रंग भर देती हैं। ढोल, नगाड़े, शहनाई, लोक वाद्यों की गूंज से माहौल आनंद से सराबोर हो जाता है।

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दूल्हा-दुल्हन मंडप में बैठते हैं, उसे चंवरी कहते हैं। तब सांकडली गीत सुनाया जाता है- अरे भलां  परणावो म्हारी  सांकडली ने। शादी के बाद बाराती दूल्हे सहित जनवासा पर आ जाते हैं। खाना खाकर मौज करते हैं, और आराम करते है। दूसरे दिन सीख पर अरणी गीत गाया जाता हैं- अरे करशलिया बाबाजी रा पाछल म्हारा डोडाण रो कोर। इस तरह वैवाहिक परंपरा संपूर्ण होकर दुल्हन दूल्हे के घर आती है। मांगणियारों के जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन गीत, संगीत एवं वाद्य है। उनका  गाना बजाना ही मुख्य पेशा है, जिससे जीवन यापन होता है।

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