होलिका उत्सव के बाद मेवाड़ के विभिन्न गांवों में गैर नृत्यों की धूम

पन्नालाल मेघवाल वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार।
होलिका उत्सव के बाद मेवाड़ के विभिन्न गांवों में गैर नृत्यों की धूम मची हुई है। मेनार गांव में जमरा बीज पर तोप एवं बंदूकें दागी गई और शमशीरें लहराई गई। मेनारिया समाज के बड़े बुजुर्गों और युवाओं ने लाल कसूमल पाग के साथ पारंपरिक मेवाड़ी पोशाक में हाथ में बंदूकें, तलवारें एवं डांडिया लिए पूरे जोश खरोश के साथ गैर खेली। मुगल टुकड़ी पर विजय की प्रतीक इस गैर में रणबांकुरे ढोल की थाप पर घेर-घेर घूमते हुए देर रात्रि तक धूम मचाते रहे।
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मेवाड़ में मेनार, नाथद्वारा, भीलवाड़ा, मालीखेड़ा, राजपुरा, गंगापुर, शाहपुरा, मांडलगढ, बांसवाड़ा, डूंगरपुर एवं प्रतापगढ़ की गैरे प्रसिद्ध हैं। यहां विभिन्न गांवों में अलग-अलग तिथियों पर पारंपरिक रूप से गैर खेली जा रही है। यहां रंग-बिरंगे परिधान, पारंपरिक वाद्य यंत्र और मनमोहक नृत्य शैली इसके मुख्य आकर्षण हैं। विभिन्न गांवों में इस लोक नृत्य का आनंद लेने के लिए आसपास के लोग बड़ी संख्या में जमा हो रहे हैं।
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यहां गैर सभी जगह समान नहीं है। हर जगह की अपनी लय, घेरा बनाने की विधि एवं वेशभूषा भिन्न होती है। अलग अलग गैर अपनी अपनी खासियत रखते हैं। यह खासियत पदचापों, तालों तथा वृत बनाने की क्रियाओं को लेकर है। गैर से तात्पर्य गोल आकार अथवा गोलाकार से है। इसे वृत भी कहते हैं। गैर नृत्य का आकार गोलाई लिए होता है। वृत में नाचे जाने के कारण ही इसका यह नाम पड़ा। इसे गैर खेलना, गैर रमना, गैर घालना अथवा गैर नाचना कहा जाता है।
मेवाड़ में गैर नृत्य का आरंभ ढोल एवं मांदल की थाप पर धीमी गति से होता है। गैर खेलने वालों को गैरिये अथवा खेल्ये कहा जाता है। गैरिये पहली मात्रा पर अपने दाएं वाले गैरिये के डंडे से डंडा टकराते हैं। दूसरी मात्रा खाली रखते हुए तीसरी मात्रा पर अपने दाएं वाले डंडे से डंडा टकराते हैं और चौथी मात्रा पर घूम जाते हैं। इस प्रकार वृत्ताकार में चलते हुए नृत्य करते रहते हैं।
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धीरे-धीरे लय बढ़ती है और गैर का वृत्ताकार बढ़ता जाता है। गैर नृत्य एक वृत से प्रारंभ होकर दोहरे वृत में परिवर्तित हो जाता है। कोई कोई तिहरी और कभी-कभी कुछ दल चार वृतों में चौहरी गैर खेलकर सबको अचंभित कर देते हैं। कभी कभी गैरिये एक वृत में नाचते हुए चार वृत में बदल जाते हैं और तीव्र गति से नाचते हुए पुनः एक वृत में सिमट जाते हैं। इस प्रकार वृत में वृत्त चलते रहते हैं।
गैर नृत्य में प्रयुक्त डंडे खांडे नाम से जाने जाते हैं। यह खांडे बड़े आकर्षक होते हैं जो बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इनका स्वरूप लहरदार छड़ी की भांति होता है। इसे गैरिये स्वयं तैयार करते हैं। इसके लिए पहले गूंदी वृक्ष से टहनियां काट कर लाते हैं और उनकी छाल हटाकर एक-एक इंच की दूरी रखते हुए उसी पर उस छाल को लपेट देते हैं।
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इसके बाद उस डंडे को अग्नि का स्पर्श कराकर छाल हटा ली जाती है। हटाई हुई छाल की जगह अग्नि का असर नहीं रहने से वह भाग सफेद ही रहता है। जबकि बिना छाल वाला भाग काला अथवा चॉकलेटी रंग लिए उभर आता है तब पूरा डंडा जेबरे की शक्ल सा बड़ा खूबसूरत लगने लगता है। ऐसी छड़ियों अथवा खांडों से जब गैर खेली जाती है तो उसका रंग ही कुछ और होता है।

वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार।
मेवाड़ क्षेत्र में यही गैर खांडों की बजाय कहीं-कहीं तलवारों से खेली जाती है इसमें नर्तक के एक हाथ में नंगी तलवार रहती है जबकि दूसरे हाथ में उसकी म्यान रहती है। इसके अलावा गैर का एक तीसरा प्रकार और होता है जिसमें एक हाथ में तलवार तथा दूसरे में म्यान की जगह लकड़ी का खांड़ा रहता है। तलवार की गैर के समय वादक घेरे के बीच में खड़े नहीं रहकर घेरे के बाहर खड़े रहते हैं ताकि तलवार के वार से उन्हें किसी प्रकार की कोई हानि नहीं होने पाए।
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यहां गैर दलों का प्रत्येक गैरिया छड़ी लिए हुए होता है। किसी के एक हाथ में छड़ी है तो किसी के दोनों हाथों में छड़ी होती है। यहां भांति भांति की छडियां दिखाई देती हैं। कहीं चांदी की मूठ वाली छड़ी तो कहीं पतली लंबी लहरदार छड़ी होती है। गैरिये अपनी छोडियां एक दूसरे की छड़ियों से टकराते, विविध भावाभिनयों में नर्तक फूले नहीं समाते हैं।
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