Rajasthan Politics: सचिन सब्र कर लेते तो गहलोत खुद बनाते उन्हें अपना उत्तराधिकारी, वे ही रहे हैं श्रेष्ठ विकल्प

 
Sachin Pilot Ashok Gehlot
रिपोर्टर - मदन कलाल
 

जयपुर। Rajasthan Politics: वफादार और गद्दार! क्या मजेदार शब्द बन गए हैं इन दिनों। वक्त और हालात के मुताबिक इनके अर्थ और मायने बदल गए हैं। अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों ही इन शब्दों से हर पल जूझ रहे हैं। दिन-रात ये शब्द उनके कानों को चुभ रहे हैं। कौन वफादार, कौन गद्दार, इसका फैसला आमजन छोड़िए खुद आलाकमान करने की स्थिति में नहीं है। सच तो यह है कि मोदी की विराट चुनौती के सामने खुद के अस्तित्व के लिए लड़ रहा आलाकमान इन दोनों बब्बर शेरों को ठीक से हैंडल कर ही नहीं पा रहा।

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राजस्थान में आज कांग्रेस यानी अशोक गहलोत है। यह सच है। लेकिन यह भी मानना पड़ेगा गहलोत के उत्तराधिकारी सचिन पायलट से बेहतर कोई नहीं। जब दोनों ही सच हैं तो रास्ता क्यों नहीं निकला? कांग्रेस के ये दिग्गज इस मोड़ पर खड़े होंगे इसकी किसी ने कल्पना नहीं की होगी। 2018 में चुनाव जीत के बाद जब मुख्यमंत्री के लिए तकरार हुई तो आलाकमान ने बीच का रास्ता निकाला। गहलोत मुख्यमंत्री, सचिन उपमुख्यमंत्री। तय यह भी हुआ जब भी मौका मिलेगा सचिन ही संभालेंगे कुर्सी। इस बात में कोई शक नहीं कि सचिन पायलट बिना वक्त गंवाए हर पल सीएम का ख्वाब देखते रहे। होना भी चाहिए, आखिर उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सड़कों पर लड़ाई लड़कर पार्टी को गर्त से उठाया। 

जहां तक गहलोत का सवाल है उनके बिना सचिन किसी भी सूरत में उतना मजबूत नहीं हो सकते थे। गहलोत की कांग्रेस निष्ठा पर रत्तीभर भी उंगली नहीं उठाई जा सकती। पूरे राजनीतिक करियर में वे बेदाग रहे हैं। उनकी तगड़ी लीडरशिप के कायल हमेशा विरोधी भी रहे हैं। सब कुछ जानने के बावजूद दोनों ही नेता एक-दूसरे को समझने में चूक कर बैठे। आत्मघाती गंभीर चूक।

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बड़ा दिल दिखाकर और बड़े हो जाते गहलोत
गहलोत को चाहिए था वे नेक्स्ट लीडरशिप के लिए सचिन को स्वेच्छा से आगे ले आते। वे कांग्रेस के सुप्रीम पावर बनने जा रहे थे। ऐसे में बड़ा दिल दिखाकर गहलोत और बड़े हो जाते। सचिन तो फिर भी उनके अंडर में ही रहते। वैसे भी सचिन सार्वजनिक रूप से कभी भी गहलोत के लिए कठोर नही रहे हैं। हर वक्त वे एक मर्यादा में नजर आए। सिर्फ सचिन को सबक सिखाने के लिए गहलोत ने राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद खो दिया। सचिन को देखते ही न जाने क्यों उनका चेहरा लाल हो जाता है। 

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थोड़ा और ठहर जाते, वक्त सचिन का ही था
सचिन की अति महत्वाकांक्षा ने बड़ी चूक कर दी। मानेसर विवाद के बाद सचिन ने पार्टी का विश्वास काफी हद तक खो दिया था, लेकिन सब्र रखकर फिर से वे विश्वास की पटरी पर लौटे। जब 4 साल इंतजार किया तो क्यों नहीं सचिन 1 साल और इंतजार कर लेते। वैसे भी चुनाव नजदीक ही आ रहे हैं। क्या इतने कम समय में वे सीएम की कुर्सी के साथ न्याय कर पाएंगे? आने वाला वक्त उन्हीं का था तो फिर क्यों सचिन राजनीति के जादूगर गहलोत से अड़ी लेने की चूक कर बैठे। सचिन गहलोत से कंधा से कंधा मिलाकर रहते तो तय था आज के हालात में गहलोत अध्यक्ष बनने पर पहला नाम सचिन का ही आगे कर देते। और जब गहलोत नाम आगे करते तो विवाद की रत्ती भर गुंजाइश नहीं रह जाती। 

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पार्टी ना गहलोत खोना चाहती है ना सचिन को
अति महत्वाकांक्षा सचिन की राह में रोड़ा बनी। खुद को सीधे चुनौती देना सीएम को नागवार गुजरा। दुश्मनी में नुकसान हमेशा दोनों ही पक्षों को होता है। दोनों ही आज इस नुकसान को बखूबी झेल रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि आलाकमान बीच का रास्ता निकाल कर दोनों ही बेकाबू हो रहे शेरों को कंट्रोल कर ले, नहीं तो तय है अगले चुनाव में भाजपा को बैठे-बिठाए राजस्थान की सत्ता नसीब होने से कोई नहीं रोक सकता। कांग्रेस आज ना सचिन को खोना चाहती है ना गहलोत को। सच कहे तो राजस्थान भी दोनों ही नेताओं को अपनी-अपनी जगह देखना चाहता है। गहलोत की राजनीतिक समझ और सचिन के युवा जोश का कोई विकल्प नहीं है। ये नेता राजस्थान के लिए ऐसेट हैं।

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