पद्मश्री मोहनलाल प्रजापत ने मृण शिल्प को दिलाई अंतरराष्ट्रीय पहचान

पन्नालाल मेघवाल वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार।
मोलेला के पद्मश्री शिल्पकार मोहनलाल प्रजापत ने मृण शिल्पकला को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। उन्होंने फ्रांस, ग्रीस, स्पेन, अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया में आयोजित हस्तशिल्प प्रदशर्नियों में शिरकत कर मोलेला की मृण शिल्प कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई। 4 फरवरी 1939 को मोलेला में जन्मे मोहनलाल प्रजापत को सन् 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया।
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84 वर्षीय पद्मश्री मोहनलाल प्रजापत इससे पूर्व सन् 2003 में शिल्पगुरु, सन् 2001 में महाराणा सज्जन सिंह, सन् 1997 में राजरत्न, सन् 1991 में कलाश्री, सन् 1988 में राष्ट्रीय एवं सन् 1984 में राज्य पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। उन्होंने नवाचारों से मृण शिल्प को नित-नूतन आयाम दिए। उनके पुत्र दिनेश प्रजापत एवं राजेंद्र प्रजापत भी इस कला को पुष्पित एवं पल्लवित कर रहे है।
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उदयपुर से लगभग 55 कि.मी. दूर हल्दी घाटी से आगे खमनोर के पास अवस्थित मोलेला गाँव मिट्टी की मूर्ति कला के लिए देश ही नहीं विदेश में भी प्रसिद्ध है। यह गाँव सडक के मोड पर बसे होने के कारण मोडेला बना तथा इसका अपभ्रंश मोलेला बन गया। मोलेला गाँव में प्रवेश करतेे ही बड़ी संख्या में कुम्हार परिवार मृण मूर्तियां, कलात्मक सजावटी वस्तुएं बनाते हुए दिखेंगे। यहाँ के कुम्हारों ने पारम्परिक मृण मूर्तियां एवं कलात्मक सजावटी वस्तुएं बनाने में विशिष्ट पहचान बनाकर इस कला को सीमा पार भी पहुँचाई है।
मोलेला के कई कुम्हार शिल्पकार मिट्टी की कलात्मक वस्तुएं बनाने में सिद्धहस्त हैं। मोलेला के कुम्हार मृण मूर्तियाँ एवं कलात्मक वस्तुएं बनाने के लिए खदान से चिकनी मिट्टी लाते हैं। इस मिट्टी में गधे की लीद मिलाते हैं। तीन भाग मिट्टी एवं एक भाग लीद होती है। लीद मिलाने से मिट्टी टूटती-तडकती नहीं है। लीद व मिट्टी के मिश्रण को हाथ और पैरों से अच्छी तरह घूॅंदते हैं। इसके बाद कृति के अनुपात में ही मिट्टी का लोंदा हाथ में लेकर उसे मनचाहा आकार देते हैं।
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सभी कृतियाँ हाथ से ही तैयार करते हैं। किसी भी प्रकार के सांचे का उपयोग नहीं करते हैं। जितनी अधिक एवं अच्छी घूँदाई होती है उतनी ही कृति मजबूत, चिकनी और चमकदार बनती है और तैयार होने के बाद उतना ही निखार आता है। कृति का बाहरी आकार तैयार होने के बाद हाथ, पैर, आँख, कान, मुँह, नाक उभारे जाते है। इसके बाद सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। एक कृति को सूखने में चार-पाँच दिन लगते है।
इन कृतियों को निर्मित करने के लिए पिण्डी, भालडी, लकडी का पाटा, पानी का प्याला एवं चाक काम में लिया जाता है। पिण्डी मिट्टी कूटने के लिए वजनदार लकडी का यह मूसल कुम्हार स्वयं बनाते है। भालडी कृति को आकार देने, उसके अंगों की बारीकियाँ उभारने के लिए एक छोटे से धारदार भाले या त्रिशूल के आकार का लोहे का औजार होता है।
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वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार।
इसकी सहायता से कृति के हाथ पैरों की उँगलियाँ शरीर या वस्त्रों की सलवटों का उभार, भौंहे, नैत्र, होंठ आदि की बारीक धारियाँ बनाते है। लकडी के पाटे पर पानी लगा-लगाकर मिट्टी को चिकनी बनाया जाता है। जैसे कि रोटी बनाने से पूर्व आटे को कई बार हल्का हल्का पानी डाल-डाल कर चिकना व लोचदार बनाया जाता है, ताकि मन चाही आकृति बनाई जा सके।
प्रारंभ में मोलेला गांव में देवी-देवताओं की मूर्तियां एवं दैनिक जीवन में काम आने वाली कृतियां ही बनाई जाती थी। लेकिन अब कलात्मक दीपक, सुराही, कलश, गुलदस्तें, गमले, एशट्रे, कप-प्लेट, केतली, पशु-पक्षियों के मुखौटे निर्मित किये जाते हैं। वाल हेगिंग में गणेश, अम्बा माता, शिवजी, नाँदिया, कालिका माता, लक्ष्मी, हनुमान एवं गणगौर आदि तैयार किए जाते हैं। मिट्टी की इन कलाकृतियों को बनाने में घर की महिलाएँ एवं बच्चे भी सहयोग करते हैं।
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मोलेला गांव से आज भी विभिन्न समाज के लोग मूर्तियाँ लेने आते है एवं विधि विधान पूर्वक मंदिरों, देवरों एवं पूजा-घरों में प्रतिष्ठापित करते हैं। दीपावली पर विशेष रुप से विभिन्न प्रकार की कलात्मक सजावटी वस्तुएं बनाई जाती हैं। इस गांव की बनी सजावटी वस्तुओं, खिलौनों, कुल्हडों, मटकों, कलशों आदि की माँग वर्ष भर बनी रहती है। यहां के मिट्टी के कलात्मक वस्तुओं की अपनी अलग ही विशिष्टता और पहचान है।
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