भारत का इकलौता मंदिर जो ग्रहण के सूतक में भी रहता है खुला, जानें रहस्य

Surya Grahan 2022: जन-जन के आराध्य प्रत्यक्ष व चमत्कारिक देवता भगवान श्री लक्ष्मीनाथजी का मंदिर सूर्य ग्रहण के सुतक लगने पर भी खुला रहता है। लेकिन ग्रहण के समय इस मंदिर के पट बंद रहते हैं। फतेहपुर में इस मंदिर की बड़ी मान्यता है। वहां के लोगों के हिसाब से ये मंदिर बड़ा चमत्कारी है। आइए जानते हैं इस मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा।
नई दिल्ली। Surya Grahan 2022: भारत में सूर्य ग्रहण के सूतक काल में सभी मंदिरों का पट बंद रहता है। ग्रहण काल शुरू होने के 12 घंटे पहले सूतक काल शुरू हो जाता है। इस दौरान पूजा-अर्चना या किसी भी शुभ कार्य को करना वर्जित होता है। ऐसे में फतेहपुर के नगर सेठ श्री लक्ष्मीनाथ भगवान की सूतक काल में भी पूजा-अर्चना की जाती है। फतेहपुर का इस मंदिर में 25 अक्टूबर को सुबह विधिवत आरती, पूजा व भोग आरती की गई। हालांकि, ग्रहण काल में मंदिर के पट बंद रहेंगे, जो शाम में 7 बजकर 45 मिनट खुलेंगे और 8 बजे आरती होगी।
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अखिर क्यों खुला रहता है सुतक काल में लक्ष्मीनाथ मंदिर
लक्ष्मीनाथ मंदिर के पूजारी रमेश भोजक ने बताया कि सालों पहले चंद्र ग्रहण था। मंदिर पचायंती के फैसले पर सूतक के कारण पट बंद थे। पुजारी ने भगवान लक्ष्मीनाथ जी को भोग नहीं लगाया। जिसके बाद रात के समय मंदिर के सामने हलवाई की दुकान पर लक्ष्मीनाथ जी महाराज ने बालक का रूप धारण कर लिया। उन्होंने कहा कि यहां तो प्रसाद मिल रहा है, मुझे भी भूख लग रही है। आप पैजनी रख लो, बदले में प्रसाद दे दो। जिसके बाद हलवाई ने पैजनी रख प्रसाद दिया। जब सुबह मंदिर के पुजारियों ने देखा कि भगवान की पैजनी गायब है, बात मंदिर के पंचों व बाजार तक फैल गई। जब हलवाई ने बताया कि रात को मेरे पास एक बालक पैजनी लेकर आया था और बदले में प्रसाद ले गया। उसके बाद से ही मंदिर में सूतक काल में भोग व आरती होती है। सिर्फ ग्रहण के समय मंदिर के पट बंद रहते हैं।
कार्तिक में तो सुबह चार बजे से ही लोग मंदिर के बाहर एकत्रित होना शुरू कर देते हैं, जिससे 5।30 बजे की आरती देख सकें। इस समय कार्तिक स्नान करने वाली महिलाओं व पुरुषों से मंदिर भरा रहता है। विशाल मंदिर में तिल रखने की जगह नहीं होती है। श्रावण, भादवा व कार्तिक मास में भगवान का और भी विशेष शृंगार होता है। इस मंदिर में रात्रि में भगवान शयन के बाद कोई भी महिला यहां तक कि छोटी सी बच्ची भी नहीं रह सकती है, चाहे वह पुजारी के परिवार की ही क्यों न हो। कार्तिक माह में दोनों समय 108 बत्तियों की आरती होती है। साल में सिर्फ एक दिन देव उठनी एकादशी को मंदिर पूरी रात खुला रहता है तथा भगवान की पांच आरती होती है एवं जागरण होता है।
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लक्ष्मीनाथ मंदिर की मान्यता
इसी परंपरा व श्रृंखला में कस्बा फतेहपुर के प्रतिपालक श्री लक्ष्मीनाथजी महाराज जिन्हें नगरवासी, प्रवासी एवं सनातन धर्मावलंबी सतानती अपना पालनहार मानते हैं। फतेहपुर का हर वह व्यक्ति चाहे वह कोट्याधीश हो या सामान्यजन देश में रहता हो या विदेश में आस्था की चरम सीमा तक श्री लक्ष्मीनाथ बाबा के प्रति समर्पित है। यह वस्तुत: एक चमत्कारिक देवता हैं।
संवत 2030 में फतेहपुर में संपन्न एक महायज्ञ के अवसर पर आए पूज्य स्वामी करपात्री महाराज इस मंदिर में पधारे तो श्रद्धा विह्वल हो उठे। उनके यही शब्द थे कि 'श्री बद्रीनाथ धाम के साक्षात स्वरूप हैं, फतेहपुर के प्रभु श्री लक्ष्मीनाथ उक्त सारगर्भिता वाणी का जरूर कोई महत्त्व है। एक सामंजस्य यह भी है कि कार्तिक कृष्ण पक्ष में जब बद्रीनाथजी के शीतकालीन पर पट बंद होते हैं तो यहां दीपक आरती प्रारंभ होती है।
अक्षय तृतीया पर पट खुलते ही यहां तुलसी चंदन से आरती प्रारंभ होती है। बहुत से तथ्य एवं प्रमाण श्री लक्ष्मीनाथजी की अलौकिकता एवं प्रत्यक्ष हाजिर देव होने को प्रमाणित करता है। श्री लक्ष्मीनाथ पुरी नगरी के राजा हैं। उनके लिए सब बराबर हैं। इस तथ्य के संबंध में तो एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण एतिहासिक वृतांत सर्व विदित है। संवत 1683 के तत्कालीन सामाजिक परिप्रेक्ष्य में पतित जाति माने जाने वाले तारक जाति के भीखजन नामक भक्त नित्य सुबह भगवान का दर्शन करने आने लगा।
कुछ दिनों में ही समाज के ऊंचे लोगों को यह नागवार गुजरने लगा तब उन्होंने पंचायत करके उसके मंदिर में आने पर पाबंदी लगा दी। अगले दिन स्थिति का ज्ञान होने पर भीखजन अत्यंत दुखी हो गया। वह तीन दिन तक निराहार भगवान की पीठ पीछे की खिड़की पर बैठा रहा तथा उसने व्यथित हृदय से काव्य की दृष्टि से सर्वोत्तम 52 छप्पयों की रचना की, जिस पर मूर्ति ने मुंह मोड़कर भक्त को दर्शन दिया तथा वैसे ही स्थिर हो गई। इसका पता चलते ही सबने उनसे क्षमायाचना करते हुए उनको दर्शन का अधिकार दिया। इन 52 छप्पयों का प्रकाशन भीख बावनी के रूप में हुआ जो अपने काव्य सौंदर्य तथा भक्ति सरिता के कारण एक महान रचना के रूप में प्रतिष्ठित है।
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मूर्ति का उद्भव
ऐतिहासिक दस्तावेजों व तथ्यों के अनुसार श्री लक्ष्मीनाथजी की मूर्ति का जमीन से उद्भव सिंध हैदराबाद (वर्तमान में पाकिस्तान) के पास एलार ग्राम में मोहम्मद अली पठान के यहां संवत 1529 सन् 1472 में हुआ। गोरुजी भोजक बड़े भगवत भक्त थे वे एक बार सन् 1531 में एलोर गए हुए वे वहां उन्हें साक्षात भैरू के दर्शन हुए व चमत्कार दिखाया। वे उनके आदेश पर मौहम्मद अली पठान से मूर्ति लेकर आए। उसे सब्जी मंडी के पास सीताराम मंदिर की कुटिया में रखा 33 वर्ष बाद बस्ती के महाजन पंचों ने कई प्रत्यक्ष लाभ व चमत्कार देखकर मुख्य बाजार में मंदिर बनाकर इसे स्थापित किया।
पूजा के लिए भोजक व पंडा परिवारों के निर्धारित अवसर होते हैं। मंदिर के गर्भ गृह में उनके वयस्क यज्ञोपवीतधारी परिवार के सदस्यों के अलावा अन्य कोई भी व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता, यहां तक कि भांजा, दोहिता नाती, दामाद आदि भी नहीं। वास्तव में लक्ष्मीनाथजी साक्षात हैं। पूरे दिन भक्तों का तांता लगा रहता है। बाजार के सभी दुकानदार पहले भगवान का दर्शन करते हैं तब दुकान खोलते है ।
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भगवान लक्ष्मीनाथजी के चमत्कार
श्री लक्ष्मीनाथजी के चमत्कारिक वृतांतों की एक लंबी श्रृंखला है, जिसमें चूरू के सेठों के डूबते जहाज को पार लगाना, अंधे को ज्योति मिल जाना, चोरी के उद्देश्य से आए चोरों की आंखों की रोशनी लुप्त हो जाना, ग्रहण के सूतक समय में भोग न लगाने पर बाल रूप में हलवाई के यहां कड़ा गिरवी रखकर मिठाई खाना आदि हैं।
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492वें स्थापना दिवस पर दिखा चमत्कार
अभी हाल ही में मंदिर के 492वें स्थापना दिवस पर भी लोगों ने नगर आराध्यदेव भगवान लक्ष्मीनाथजी का चमत्कार देखा। उस समय भीषण गर्मी का दौर चल रहा था और तापमान करीबन 45 डिग्री के आसपास चल रहा था। उस समय सभी भक्तजनों और आयोजको के समक्ष यह यक्ष प्रश्न था कि इस भीषण गर्मी में पूरे नगर से पांच घंटे के जुलूस में भक्तजन कैसे यात्रा करेंगे। सभी ने प्रभु से प्रार्थना की तो दूसरे दिन भक्तजनों ने प्रत्यक्ष चमत्कार देखा जब दोपहर एक बजे तक आकाश में बादल छाये रहे तथा सूर्यदेव के दर्शन तक नहीं हुए और तापमान में बेहद गिरावट आई तथा जैसे ही दोपहर एक बजे यात्रा पूरी हुई, सूर्यदेव ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया और कुछ ही देर में वैसी ही गर्मी हो गई ।
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इस मंदिर की बड़ी विशेषता यह है कि मूर्ति को प्रत्यक्ष एवं जीवंत मानते हुए उसकी सेवा अर्चना की जाती है। अन्य मंदिरों में मूर्तियां अचल रूप से प्रतिष्ठापित होती हैं, पर यहां ऐसा नहीं है। जेठ महीने में जलशय्या होती है तो श्रावण में ठाकुरजी सभा मंढ़ से बाहर आते हैं व उनका झूलों का श्रृंगार होता है। भाद्रपद शुक्ला सप्तमी से पूर्णिमा तक वहां पिछले 144 वर्षों से निरंतर श्रीमद् भागवत सप्ताह ज्ञान यज्ञ का आयोजन होता है, इसलिए यजमान बनने के लिए अनेक लोगों की अर्जिया आती है, जिसका निर्णय लॉटरी के जरिए किया जाता है ।
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