दिल्ली चलो मार्च: कुछ इस तरह बदलती गई किसान आंदोलनों की जगह...

नई दिल्ली। देश में आंदोलनों और राजनीति का एक लंबा इतिहास रहा है। देश में कई बड़े बदलाव आंदोलनों की वजह से ही हुए हैं। माना जाता है कि आंदोलन जितना सरकार के मंत्रालय और दफ्तरों के नजदीक होगा, उतनी ही जल्दी इसकी आवाज सत्ता के कानों तक पहुंचेगी। अब डिजिटल युग में सोशल मीडिया की वजह से आंदोलनों के इन स्थलों का महत्व कम होता जा रहा है। यही वजह है कि अब यह आंदोलन संसद और राष्ट्रपति भवन जंतर-मंतर से धीरे-धीरे दूर होते जा रहे हैं।
निरंकारी मैदान नहीं आना चाहते किसान
पिछले छह दिनों से लाखों की संख्या में किसान अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन वह निरंकारी मैदान नहीं आना चाहते। इसका कारण यह है कि निरंकारी मैदान दिल्ली की सत्ता के केंद्र से काफी दूर है। दिल्ली में आंदोलनों की जगह का इतिहास देखें तो आजादी के बाद से 90 के दशक के अंत तक इंडिया गेट के पास वोट क्लब आंदोलन की बड़ी जगह रही है। उस जगह प्रदर्शन करने पर पाबंदी एक ऐसे ही किसान आंदोलन के कारण लगी थी। 32 वर्ष पहले अक्टूबर, 1988 में किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन के लोगों ने खेती-किसानी से जुड़ी अपनी 35 सूत्री मांगों को लेकर बोट क्लब पर प्रदर्शन किया था। उस समय किसानों के आगे तत्कालीन कांग्रेस सरकार को झुकना पड़ा था लेकिन इसी आंदोलन के बाद यहां से सरकार के खिलाफ आवाज उठनी बंद हो गई। यह जगह देश की संसद, राष्ट्रपति भवन और सत्ता का केंद्र कहा जाने वाले 'साउथ ब्लाक' से बमुश्किल आधा किलोमीटर के अन्दर थी।
अब जंतर-मंतर में इकट्ठा होने लगे हैं लोग
इसके बाद जंतर-मंतर को 'बोट क्लब' का रूप दिया गया। यह जगह भी संसद भवन के समीप है और यहां आज भी देश के विभिन्न हिस्सों से लोग इकट्ठा होकर अपनी मांगों की आवाज उठाते हैं। कुछ वर्षों पहले ही अन्ना आंदोलन की शुरुआत यहीं से हुई थी। बाद में उक्त आंदोलन ने रामलीला मैदान में बड़ा रूप लिया। इसके बाद अब रामलीला मैदान भी आंदोलनों के लिये पसंदीदा जगह बन गई है।
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